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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे प्रत्यक्ष
प्रशस्तपादभाष्यम् कर्षानियतेन्द्रियनिमित्तमत्पद्यते । शब्दस्य त्रयसन्निकर्षाच्छोत्रसमवेतस्य तेनैवोपलब्धिः। संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागपरत्वापरत्वस्नेहतत्तत् द्रव्य में चक्षुरादि तत्तद् इन्द्रिय का सन्निकर्ष, इन तीन कारणों की और अपेक्षा होती है। श्रोत्र ( रूप आकाश ) में रहनेवाले शब्द का ही श्रोत्र रूप इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है (किन्तु ) इसमें आत्मा. मन और श्रोत्र रूप इन्द्रिय इन तीनों के (दो) सन्निकर्षों की भी अपेक्षा होती है (रूपादि प्रत्यक्ष में कांयत आत्मादि चार वस्तुओं के तीन सन्निकर्षों की नहीं)। संख्या. परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, स्नेह,
न्यायकन्दली स्वगतविशेषाणां हेतुत्वाद रूपादिष्विन्द्रियव्यवस्था, अन्यथा परिप्लवः स्याद् विशेषाभावात् । शब्दस्य जयरान्निकर्षाच्छोत्रसमवेतस्य तेनैवोपलब्धिः । यसन्निकर्षादिति आत्ममनइन्द्रियाणां सन्निकर्षो दर्शितः। इन्द्रियार्थसन्निकर्षः श्रोत्रसमवेतस्येत्यनेनोक्तः । तेनैवोपलब्धिरिति श्रोत्रणवोपलापरित्यर्थः । संख्यादीनां कर्मान्तानां प्रत्यक्षद्रव्यसमवेतानामाश्रयवच्चक्षुःस्पर्शनाभ्यां ग्रहणम् ।
कर्मप्रत्यक्षभिति न मृष्यामहे, गच्छति द्रव्ये सयोगदिभागातिरिक्तपदार्थान्तरानुपलब्धः। यस्त्वयं चलतीति प्रत्ययः स संयोगविभागानुमिनियालम्बन इति । तदसारम्, यदि कर्माप्रत्यक्षं विभागसंयोगाभ्यामनुमोयते तदा विभागसंयोगयोरुभयवृत्तित्वादाश्रयान्तरेऽपि कर्मानुमीयेत । न च मूलादग्रमग्राच्च भलं गच्छति शाखामृगे तरावप्यनारतसंयोगविभागाधिकरणे चलतीति प्रत्यय उदयते। संनिकर्षात' इत्यादि वाक्य के 'त्रयसंनिकर्षात्' इस पद के द्वारा आत्मा, मन और इन्द्रियों के संनिकर्ष ( प्रत्यक्ष के कारण रूप में ) दिखलाये गये हैं । एवं 'श्रोत्रसमवेतस्य' इस पद के द्वारा ( शब्द प्रत्यक्ष के कारणीभूत ) इन्द्रिय और अर्थ का संनिकषं दिखलाया गया है । 'तेनैवोपलब्धिः ' अर्थात् श्रोत्र में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले शब्द का श्रोत्रे. न्द्रिय से ही प्रत्यक्ष होता है। प्रत्यक्ष के विषय द्रव्यों में रहनेवाले 'संख्यादीनां कर्मान्तानाम्' अर्थात् संख्या से लेकर कर्मपर्यन्त ( संख्या परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, स्नेह, द्रवत्व, वेग और कर्म इन ग्यारह वस्तुओं का ) चक्षु और त्वचा इन दोनों इन्द्रियों से ग्रहण होता है।
(प्र.) हम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि कम का भी प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि द्रव्य के चलने पर (उतर देश के साथ) संयोग और (पूर्व देश से) विभाग इन दोनों से भिन्न किसी वस्तु की प्रतीति द्रव्य में नहीं होती है। द्रव्य में जो 'चलति' इस प्रकार की
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