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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे प्रत्यक्षन्यायकन्दली विचार्य प्रवर्तते । विशिष्टज्ञानं तु विचार इति । इदं विशेषणमिदं विशेष्यमयमनयोः सम्बन्ध एषा च लोकस्थितिः । दण्डी पुरुषो न तु पुरुषो दण्ड इति विचार्य च प्रत्येकमेतानि पश्चादेकीकृत्य गृह्णाति दण्डी पुरुष इति । यद्यर्थस्य विशिष्टता वास्तवी प्रथममेव विशिष्टज्ञानं जायेत । न भवति चेत् ? नास्य स्वरूपतो विशिष्टता, किं तूपाधिकृतेति विशिष्टताज्ञानं कल्पनेति चेत् ? दुरूहितमिदमायुष्मता, आत्मा हि प्रत्येकं विशेषणादीन् गृहीत्वा ताननुसन्दधान इन्द्रियेणार्थस्य विशिष्टतां प्रत्येति न ज्ञानमचेतनम्, तस्य प्रतिसन्धानाशक्तेः, विरम्य व्यापराभावाच्च । अर्थो विशेषणसम्बन्धाद् विशिष्ट एव, विशेषणादिग्रहणस्य सहकारिणोऽभावात् । प्रथममिन्द्रियेण न तथा गृह्यते, गृहीतेषु विशेषणादिषु गृह्यत इत्यर्थेन्द्रियजं तावद्विशिष्टज्ञानम् । यदि सकता ) । (प्र०) इन्द्रिय और अर्थ से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान में अर्थ अपने वास्तविक रूप में ही भासित होता है | किन्तु वह विचार पूर्वक अपने विषय को प्रकाशित करने के लिए प्रवृत्त नहीं होता। यह विशेषण है, यह विशेष्य है, यह उन दोनों का सम्बन्ध है' इस प्रकार के विचार से ही तो विशिष्ट ज्ञान' की उत्पत्ति होती है, क्योंकि विशिष्ट ज्ञान के सम्बन्ध में साधारण जनों की स्थिति इस प्रकार है कि 'दण्ड ही विशेषण है और पुरुष ही विशेष्य है, किन्तु इसके विपरीत लोक में यह व्यवहार नहीं है कि 'पुरुष ही विशेषण है और दण्ड ही विशेष्य है' इस प्रकार के विचार के बाद दण्ड, पुरुष एवं दोनों के सम्बन्ध इन तीनों को एक ज्ञान में आरूढ़ कर 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि आकार को विशिष्ट प्रतीतियाँ होती हैं। ऐसी स्थिति में पुरुष की दण्डविशिष्टता अर्थात् अर्थ को विशिष्टता यदि वास्तव-वस्तु हो तो फिर पहिले ही इन्द्रियपात होते ही 'विशिष्टबोध' की ही उत्पत्ति होती, सो नहीं होती है, अतः समझना चाहिए कि विशेषण विशिष्टता अर्थ का स्वाभाविक धर्म नहीं है, किन्तु औपाधिक धर्म है (जैसे कि जवाकुमुम संनिहित स्फटिक का लौहित्य ) अतः विशिष्ट विषयक ज्ञान ( अर्थात् सविकल्पक ज्ञान ) प्रमा रूप नहीं है। (उ०) यह तो आप की बड़ी ही विचित्र कल्पना है, क्योंकि आत्मा पहिले विशेषणादि को जानकर फिर उनकी स्मृति की सहायता से इन्द्रिय के द्वारा अर्थ की विशिष्टता का भी अनुभव करता है । यह सब काम ज्ञान के द्वारा नहीं हो सकता क्योंकि वह अचेतन है, एवं ( क्षणिक होने के कारण ) एक व्यापार के बाद दूसरे व्यापार की क्षमता भी ज्ञान में नहीं है। विशेषण से युक्त होने के कारण ही अर्थ 'विशिष्ट' कहलाता है (विशिष्ट रूप से गृहीत होने के कारण नहीं इन्द्रिय के प्रथम सम्पात के बाद ही जो विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति नहीं होती है उसका कारण है विशेषण ज्ञान रूप सहकारि कारण का अभाव । इस स्थिति में यदि विशिष्ट बुद्धि रूप होने के अपराध से ही विशिष्ट ज्ञान ( सविकल्पफ ज्ञान )
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