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प्रकरणम् ]
भाषांनुवादसहितम्
४२७
प्रशस्तपादभाष्यम् धनपटलमचलजलनिधिसदृशमम्बरमञ्जनचूर्णपुजश्यामं शार्वरं तम इति । ये भी हैं) जहाँ वस्तुतः प्रत्यक्ष के न रहने पर भी प्रत्यक्ष के ये अभिमान होते है । 'मेध से रहित यह प्रकाश बिना तरङ्ग के समुद्र की तरह है' एवं रात का यह अन्धकार अञ्जन के चूर्ण की तरह कृष्ण वर्ण का है';
न्यायकन्दली
भ्रमः, निर्विकल्पके त्विन्द्रियदोषस्यैव सामर्थ्य तद्भावभावित्वात् । यथा शङ्के पीतज्ञानोत्पत्तौ।
विपर्ययस्योदाहरणान्तरमाह-असत्यपि प्रत्यक्षे प्रत्यक्षाभिमान इत्यादिना गगनावलोकनकुतूहलादूर्ध्वमनुप्रेषिता नयनरश्मयो दूरगमनान्मन्दवेगाः प्रतिमुखैः सूर्यरश्मिभिरतिप्रबलवेगैराहताः प्रतिनिवर्तमानाः स्वगोलकस्य गुणं देशान्तरे निरालम्बं नीलिमानमाभासयन्तो जलधरपटलनिर्मुक्तनिस्तरङ्गमहोदधिकल्पमम्बरमिति प्रत्यक्षमिव रूपज्ञानमप्रत्यक्षे नभसि जनयन्ति । स्वगोलकगुणं व्योमाधिकरणत्वेनेन्द्रियमाभासयतीत्यत्र तद्गुणानुविधानेन प्रतीतिनियमाप्रमाणम् । तथा हि-कामलाधिष्ठितेन्द्रियाधिष्ठानो विद्रुतकलधौतरसविलुप्तमिवान्तरिक्षमीक्षते। कफाधिकतया धवलगोलको रजतसच्छायं पश्यति । शर्वर्यां भवं शार्वरं तमोऽञ्जनपुञ्ज इव श्याममिति केवलभी केवल सविकल्पक भ्रम का ही कारण है। निर्विकल्पक भ्रम का इन्द्रियदोष ही कारण है, क्योंकि उसके रहने से ही उसकी उत्पत्ति होती है। जैसे कि शंख में पीत ज्ञान की उत्पत्ति होती है ।
___ 'असत्यपि प्रत्यक्षे' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा विपर्यय का दूसरा उदाहरण दिखलाया गया है। आकाश को देखने के कुतूहल से ऊपर की ओर प्रषित आँख की रश्मियों को गति दूर जाकर धीमी हो जाती है। फिर नीचे की ओर जाती हुई प्रबल गति से युक्त सूर्य की रश्मियों से बाधा पाकर वे ही रश्मियाँ नीचे की ओर लौटती हैं । तब ( ये ही चक्षु की रश्मियाँ) अपने गोलक के ही गुण नीलवर्ण को बिना अधिष्ठान के ही प्रतिभास कराती हुई अप्रत्यक्ष आकाश में प्रत्यक्ष की इस आकार के ज्ञान को उत्पन्न करती है कि 'यह मेघों से रहित आकाश तरङ्गों से शून्य समुद्र के समान है' (कथित स्थल में ) 'नयन की रश्मियां अपने अधिष्ठान भूत गोलक के गुण के ही आकाश में प्रतिभासित कराती हैं' इस अवधारण में यह प्रतीति ही प्रमाण है कि सदा से गोलक के गुण का ही प्रतिभास आकाश में नियमतः होता है, जैसे कि कमल नाम की व्याधि से दूषित चक्षुगोलक वाले पुरुष को आकाश पिघले हुए सुवर्ण रस से लिपा हुआ सा दीखता है। वही आकाश कफ के आधिक्य से स्वच्छ गोलकवाले पुरुष को चाँदी की तरह दीखता हैं । 'शर्वयाँ भवं शार्वरम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार रात
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