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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे विपर्यय
प्रशस्तपादभाष्यम् अनध्यवसायोऽपि प्रत्यक्षानुमानविषय एव सञ्जायते । तत्र श्यक्षविषये तावत् प्रसिद्धार्थेष्वप्रसिद्धार्थेषु वा व्यासङ्गादर्थित्वाद्वा किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः । यथा वाहीकस्य पन
प्रत्यक्ष या अनुमान के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषयों का ही अनध्यवसाय भी होता है। इनमें पहिले से ज्ञात अथवा अज्ञात किसी अन्य विषय में मग्न, अथवा किसी विशेष प्रकार की प्रतीति की इच्छा या किसी प्रयोजन से अभिभूत पुरुष का ( 'यह क्या है ?' इस आकार का) केवल आलोचन ज्ञान ही प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषय का अनध्यवसाय है। जैसे कि भार ढोनेवाले पुरुष को कटहल प्रभृति फलों को देखने के बाद यह अनिश्चयात्मक (अनध्यवसाय ) होता है (कि, यह क्या है ? ) उस ( भारवाही पुरुष ) को
न्यायकन्दली वदन्तो विपर्ययाभावं समर्थयन्ति, तेषामस्मिज्ञाने प्रवृत्तिर्न स्यादलौकिकस्यार्थनियाहेतुत्वानवगमात् ।
अनध्यवसायोऽपि प्रत्यक्षानुमानविषये सजायते । प्रत्यक्षानुमानविषये विपर्ययस्तावद्भवति, अनध्यवसायोऽपि भवतीत्यपिशब्दार्थः । प्रत्यक्षविषये तावदनुमानविषये क्रमेणानध्यवसायो वक्तव्य इत्यभिप्रायेण क्रमवाचिनं तावच्छब्दमाह-प्रसिद्धार्थेष्वप्रसिद्धार्थेषु वा व्यासङ्गादथित्वाद्वा किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः। प्रसिद्धाश्च ते अर्थाश्च प्रसिद्धार्थाः, येऽर्था; पूर्वं ज्ञातास्तेषु व्यासङ्गादन्यत्रासक्तचित्तत्वाद् विशेषप्रतीयथित्वाद् वा किमित्यालोचनमात्रम्। गते विद्यमान रजत का ही भान होता है, किन्तु वह रजत अलौकिक है। उनके मत से इस ज्ञान के बाद प्रवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि अलौकिरू वस्तु से किसी भी कार्य की उत्पत्ति कहीं भी किसी को ज्ञात नहीं है।
'अनध्यवसायोऽपि' इत्यादि वाक्य में प्रयुक्त 'अपि' शब्द का यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार विपर्यय प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा ज्ञात होने वाले विषयों का ही होता है, उसी प्रकार 'अनध्यवसाय' भी उन दोनों प्रकार के विषयों का ही होता है। प्रकृत वाक्य में क्रम के वाचक 'तावत्' शब्द का प्रयोग इस अभिप्राय से किया गया है कि प्रत्यक्ष के विषय और अनुमान के विषय मशः दोनों में ही अनध्यवसाय भी समझना चाहिए । 'प्रसिद्धाश्च ते अर्थाश्च' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'प्रसिद्धार्थेषु' इत्यादि बाक्य में प्रयुक्त 'प्रसिद्धार्थ' शब्द से वह अर्थ लेना चाहिए जो पहिले से ज्ञात हो । 'तेषु व्यासङ्गात्' अर्थात् उनसे भिन्न विषयों में चित्त के लगे रहने के कारण अथवा किसी के विशेष प्रकार से प्रतीति के 'अथित्व' अर्थात् प्राप्ति की इच्छ। से
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