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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्त पादभाष्यम् [गुणे प्रत्यक्ष
प्रशस्तपादभाष्यम् तत्राक्षमक्षं प्रतीत्योत्पद्यत इति प्रत्यक्षम् । अक्षाणीन्द्रियाणि, घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्छ्रोत्रमनांसि षट् । तद्धि द्रव्यादिषु
इनमें 'अक्षम् अक्षम् प्रतीत्योत्पद्यते यज्ज्ञानम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। ( इस ) 'अक्ष' शब्द के अर्थ हैं 'इन्द्रिय' (१) घ्राण ( २ ) रसना (३) चक्षु ( ४) त्वचा ( ५) श्रोत्र एवं (६) मन ये छः इन्द्रियाँ हैं।
न्यायकन्दली स्वप्नान्तिकमुच्यते । तदप्युपरतेन्द्रियग्नामस्य भावात् स्वप्नज्ञानमिति कस्यचिदा. शङ्कामपनेतुमाह-स्वप्नान्तिकं यद्यप्युपरतेन्द्रियग्रामस्य भवति, तथाप्यतीतस्य पूर्वानुभूतस्य स्वप्नज्ञानप्रबन्धस्य प्रत्यवेक्षणादनुसन्धानात् स्मृतिरेवेति । उपसंहरति--भवत्येषा चतुर्विधाऽविद्येति ।
सम्प्रति विद्यां विभजते--विद्यापीति । न केवलमविद्या चतुर्विधा, विद्यापि चतुविधेति । प्रत्यक्षेति। आदौ प्रत्यक्षस्य निर्देशः कारणत्वात्, तदनन्तरमनुमानस्य तत्पूर्वकत्वात्, तदनन्तरं स्मृतेः प्रत्यक्षानुमितेष्वर्थेषु भावात्, लौकिकप्रमाणान्ते संकीर्तनमार्षस्य लोकोत्तराणां पुरुषाणां तद्भावात् ।
प्रत्यक्षस्य लक्षणं तावत्कथयति-तत्राक्षमक्षं प्रतीत्योत्पद्यत इति प्रत्यक्षकि यह ज्ञान भी कथित 'उपरतेन्द्रियग्राम' पुरुष को ही होता है, अतः यह भी 'स्वप्न' ही है (स्वप्नान्तिक नहीं) इसी आक्षेप के समाधान के लिए 'स्वप्नान्तिकम्' इत्यादि वाक्य लिखा गया है। कहने का तात्पर्य है कि यह स्वप्नान्तिकज्ञान यद्यपि 'उपरतेन्द्रियग्राम' पुरुष को ही होता है फिर भी यह 'अतीत' अर्थात् पूर्वानुभूत स्वप्नज्ञानों के 'प्रत्यवेक्षण' अर्थात् अनुसन्धान से उत्पन्न होने के कारण स्मृति ही है । 'भवत्येषा' इत्यादि से इस प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं।
___ 'विद्यापि' इत्यादि सन्दर्भ के द्वारा अब 'विद्या' (यथार्थज्ञान-प्रमा) का विभाग करते हैं। (इस 'अपि' शब्द का यह अभिप्राय है कि ) केवल अविद्या ही चार प्रकार की नहीं है, किन्तु विद्या भी चार प्रकार की है। प्रत्यक्ष का निरूपण सबसे पहिले इस हेतु से किया गया है कि वह (अन्य सभी ज्ञानों का) कारण है। प्रत्यक्ष के बाद अनुमान का निरूपण इसलिए किया गया है कि वह सीधे प्रत्यक्ष से उत्पन्न होता है । प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा ज्ञात अर्थों की ही स्मृति होती है, अतः इन दोनों के निरूपण के बाद स्मृति का निरूपण हुआ है। आर्षज्ञान लोकोत्तर पुरुषों को ही होता है, अतः उसका निरूपण लौकिक प्रमाणों के निरूपण के बाद अन्त में किया गया है ।
'तत्राक्षमक्षम्' इत्यादि ग्रन्थ से क्रम के द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष का लक्षण कहते हैं । 'अक्षमक्षम्प्रतीत्योत्पद्यते तत्प्रत्यक्षं प्रमाणम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इन्द्रियों की प्राप्ति ( सम्बन्ध ) से जितने भी ज्ञान उत्पन्न हों वे सभी प्रत्यक्ष प्रमाण' हैं । इस प्रकार विशेष
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