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[गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
संज्ञा हि स्मर्यमाणापि प्रत्यक्षत्वं न बाधते।
संज्ञिनः सा तटस्था हि न रूपाच्छादनक्षमा॥ इति । प्रतीतिः शब्देन संसृष्टार्थं व्यपदिशतीत्यपि न सुप्रतीतम्। आत्मा हि चेतनः प्रतिसन्धानादिसामर्थ्यात् सङ्केतकालानुभूतं वाचकशब्दं स्मृत्वा तेनार्थं व्यपदिशति । घटोऽयमिति न प्रतीतिः, तस्याः प्रतिसन्धानादिसामर्थ्याभावात् । एवं तावत्प्रतीतिर्न शब्दं संयोजयति ।
नापि स्वयं शब्देन संयुज्यते, ज्ञानस्य तदव्यतिरिक्तस्य चाकारस्य
सम्बद्ध होकर निश्चित होता है । जिस प्रकार नीलवर्ण के द्रव्य के साथ सम्बद्ध होने पर वह स्फटिक नीलवर्ण से युक्त सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार शब्द से युक्त होकर अर्थ की प्रतीति नहीं होती है, क्योंकि ( घटादि अर्थ चक्षु से गृहीत होते हैं किन्तु ) शब्द का चक्षु से ग्रहण नहीं होता। दूसरी यह भी बात है कि (यह नियम नहीं है कि सभी सविकल्पक ज्ञान शब्द से युक्त अर्थ को ही ग्रहण करें ) केवल अपने इदन्त्वादि असाधारण रूप से भी वह निर्विकलक ज्ञान की तरह अर्थ को ग्रहण करता है ( अर्थात् जिस प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान में अर्थ इदन्त्वादि अपने असाधारण रूपों से भासित होता है उसी प्रकार कुछ सवि. कल्पक ज्ञानों में भी होता है, अन्तर केवल इतना होता है कि निर्विकल्पक ज्ञान में विशेष्य और विशेषण दोनों ही विश्लिष्ट ही भासित होते हैं। किन्तु सविकल्पक ज्ञान में दोनों संश्लिष्ट ही भासित होते हैं) वाचक शब्द की स्मृति हो जाने से वाच्य अर्थ के स्वरूप में ऐसी कोई विच्युति नहीं आती कि इन्द्रियसंयोग के रहने पर भी (इदन्त्वादि असाधारण रूप से ) उसका प्रत्यक्ष न हो सके । जैसा कहा गया है कि
संज्ञा को स्मृति होने पर भी वह अपने वाच्य अर्थ के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं ला सकती, क्योंकि अपने अर्थ के प्रसङ्ग में उदासीन होने कारण उसके अर्थ में प्रत्यक्ष होने की जो योग्यता है-उसे तिरोहित करने का सामर्थ्य उसमें नहीं है।
यह पक्ष भी ठीक नहीं जंचता कि 'प्रतीति ( सविकल्पक प्रत्यक्ष ) शब्द से सम्बद्ध अर्थ का व्यवहार करती है क्योंकि प्रतीति अचेतन है, उसमें स्मरण करने का सामर्थ्य नहीं है ; चेतन आत्मा में ही स्मरणादि का ऐसा सामर्थ्य है कि शब्दार्थ सङ्केत के समय अनुभूत वाचक शब्द को स्मरण कर उससे 'घटोऽयम्' इत्यादि व्यवहार का सम्पादन कर सकती है। इस प्रकार 'प्रतीति शब्द को अर्थ के साथ सम्बद्ध करती हैंयह पक्ष ( अपने सभी विकल्पों के अनुपपन्न होने के कारण ) अयुक्त है ।
(सविकल्पक प्रत्यक्ष रूप प्रतीति स्वयं शब्द के साथ सम्बद्ध होती है ) यह पक्ष भी अयुक्त है, क्योंकि ज्ञान एवं उसके आकार दोनों ही 'क्षणिक' होने के कारण असाधारण हैं ( अर्थात् एक ज्ञान और उसका आकार एक ही पुरुष के द्वारा ज्ञात होता है )
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