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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली
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૪૨
शब्दात्म
शब्देन संयुज्यते ? यदि तावदर्थे शब्द संयोजयति ? तत्रापि कि कमर्थं करोति ? कि वा शब्दाकारोपरक्तं गृह्णाति ? आहोस्विच्छब्देन व्यपदिशति ?
न तावत्प्रतीतिरर्थं शब्दात्मकं करोति, अर्थस्य निर्विकल्पक गृहीतेनैव स्वरूपेण विकल्पज्ञानेsपि प्रतिभासनात्, अर्थक्रियाकरणाच्च । अन्यथा व्युत्पन्नाव्युत्पन्नयोर्युगपदेकार्थव्यवसायायोगात् ।
अथ शब्दाकारोपरवतमर्थ गृह्णाति ? तदप्ययुक्तम्, अप्रीतीतेः । निर्विकल्प ज्ञानेनार्थे गृहीते प्रागनुभूतस्तद्वाचकः शब्दः स्मर्यते, प्रतियोगि. दर्शनात् । स्मृत्या रूढश्चासौ तदर्थे एवार्थं परिच्छिनत्ति, न तु स्फटिक इव नीलोपरक्तः शब्दाकारोपरवतोऽर्थो गृह्यते, शब्दस्याचाक्षुषत्वात्, केवलस्यैवार्थस्येदन्तया निर्विकल्पकवत् प्रतिभासनाच्च । न च वाचके स्मर्यमाणे वाच्यस्य काचित् स्वरूपक्षतिरस्ति, येनायं सत्यपीन्द्रियसंयोगे प्रत्यक्षतां न लभते । यथोक्तम्
(१) शब्द संयोजनात्मिका प्रतीति हो 'कल्पना' है, इस पक्ष के प्रसङ्ग में यह पूछना है कि यह प्रतीति क्या अर्थ के साथ शब्द को सम्बद्ध करती है या वह स्वयं ही शब्द के साथ सम्बद्ध होती है ?
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यदि यह कहें कि 'अर्थ में ही शब्द को सम्बद्ध करती है' तो फिर इस पक्ष में पूछना है कि वह प्रतीति शब्द स्वरूप अर्थ को ग्रहण करती है ( अर्थात् अर्थ में शब्द को अभेद सम्बन्ध से सम्बद्ध करती है ) अथवा शब्दाकार से अर्थ को ग्रहण करती है ? अथवा शब्द के द्वारा अर्थ का व्यवहार करती है ? ( इन तीनों पक्षों में से पहिले पक्ष के अनुसार यह कहना अयुक्त है कि उक्त कल्पना रूप प्रतीति ) अर्थ को शब्द से अभिन्न रूप में ग्रहण करती है, क्योंकि जिस रूप से अर्थ निर्विकल्पक ज्ञान में भासित होता है, उसी रूप से सविकल्पक ज्ञान से भी गृहीत होता है । एवं ( सविकल्पक ज्ञान के द्वारा ज्ञात ) अर्थ ही 'अर्थक्रियाकारी' अर्थात् कार्योत्पादक भी हैं ( क्योंकि अर्थ में शब्द का अभेद समारोपित ही है स्वाभाविक नहीं, समारोपित अर्थ से किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है ) । अन्यथा ( यदि सविकल्पक प्रत्यक्ष शब्द विशिष्ट अर्थ विषयक ही हो तो फिर ) व्युत्पन्न ( शब्द अर्थ के वाच्य वाचकभाव सम्बन्ध से अभिज्ञ ) पुरुष एवं 'अव्युत्पन्न ( उक्त सम्बन्ध से अनभिज्ञ ) पुरुष दोनों को एक ही समय एक ही विषयक सविकल्पक ज्ञान नहीं होंगे ।
शब्द से उपरक्त अर्थ को ही 'सविकल्पक ज्ञान ग्रहण करता है' यह पक्ष भी अनुभव से विरुद्ध होने के कारण अयुक्त हैं, क्योंकि अर्थ ( शब्द और अर्थ के सम्बन्ध का ) प्रतियोगी है, उसी के निर्विकल्पक ज्ञान रूप 'दर्शन' से पूर्वानुभूत उस अर्थ का स्मरण होता है । उस स्मृति का विषय होकर ही वाचक शब्द उस अर्थ के साथ
वाचक शब्द