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प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दलो स्फुटत्वास्फुटत्वातिशयानतिशयदर्शनादनेकद्रव्यवत्त्वं कारणम् । सत्यपि महत्त्वे. ऽनेकद्रव्यवत्त्वे च वायोरनुपलम्भाद् रूपप्रकाशो हेतुः । सर्वस्यैव ज्ञानस्य सुखदुःखादिहेतुत्वाद् देशकालादिनियमेनोत्पादाच्च धर्माधर्मदिक्कालजन्यत्वम् । अन्तरेणात्ममनःसंयोगं मनइन्द्रियसंयोगमिन्द्रियार्थसंयोगं च प्रत्यक्षाभावाच्चतुष्टयसन्निकर्षः कारणम् ।
___इन्द्रियार्थसन्निकर्षस्य हेतुत्वे सामान्योपलम्भवद् विशेषोपलम्भस्यावश्यंभावितया संशयविपर्ययानुत्पत्तिरिति चेन्न, अनियमात् । सामान्यं हि बहुविषयत्वात् स्वाश्रयस्य चक्षुःसन्निकर्षमात्रेणोपलभ्यते, विशेषस्तु स्वल्पविषयत्वात् स्वाश्रयस्य च तदवयवानां च भूयसां महत् परिमाण से युक्त पृथिवी, जल और तेज का ही प्रत्यक्ष क्यों होता है ? इसी प्रश्न का समाधान 'द्रव्ये तावत्' इत्यादि ग्रन्थ से कहते हैं । (१) 'अनेकद्रव्यवत्त्व' शब्द का अर्थ है अनेक द्रव्यों में आश्रित होना। (२) 'रूप का प्रकाश' रूप में रहनेवाला 'उद्भतत्व' नाम का एक विशेष प्रकार का धर्म है, जिसके न रहने से ही जल में रहते हुए भी तेज का प्रत्यक्ष नहीं होता। (३) 'चतुष्टयसंनिकर्ष' से अर्थात् आत्मा का मन के साथ संयोग, मन का इन्द्रिय के साथ और इन्द्रिय का अर्थ के साथ संयोग इन तीन संयोग रूप कारणों के द्वारा 'धर्मादि सामग्रियों के रहने पर' अर्थात् धर्म, अधर्म और दिशा, काल प्रभृति (सामान्य) कारणों के रहने पर प्रत्यक्ष होता है। 'महति' शब्द इसलिए रखा गया है कि परमाणु और द्वयणुक इन दोनों का प्रत्यक्ष नहीं होता है । प्रत्यक्ष के प्रति 'अनेकद्रव्य वत्त्व' को इसलिए कारण मानते हैं कि अवयवों के न्यूनाधिकभाव से अववियों में स्फुटत्व रूप विशेष और अस्फुटत्व रूप अविशेष दोनों ही देखे जाते हैं । अनेकद्रव्यवत्त्व और महत्त्व के रहते हुए भी वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः कथित 'रूपप्रकाश' को भी प्रत्यक्ष का कारण माना गया है। सभी ज्ञान सुख या दु.ख के कारण हैं, एवं सभी ज्ञान किसी नियमित देश और नियमित काल में ही उत्पन्न होते हैं, अतः धर्म, अधर्म, दिशा और काल इन सबों को भी प्रत्यक्ष का कारण माना गया है। आत्मा और मन के संयोग के न रहने पर मन और इन्द्रिय के संयोग एवं इन्द्रिय और अर्थ के संयोग के रहने पर भी प्रत्यक्ष की उत्पत्ति नहीं होती है, अतः इन चारों का संनिकर्ष भी प्रत्यक्ष का कारण है।
(प्र०) प्रत्यक्ष के प्रति इन्द्रिय और अर्थ के संनिकर्ष को यदि कारण मानें तो फिर ( अर्थगत ) सामान्य की तरह ( अर्थ के असाधारण धर्म या व्यक्तिगत धर्म ) रूप विशेषों का भी सभी प्रत्यक्षों में भान मानना पड़ेगा, जिससे संशय और विपर्यय दोनों ही अनुपपन्न होंगे। (उ.) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि यह नियम नहीं है कि सामान्य की तरह प्रत्यक्ष में विशेष का भी अवश्य ही भान हो, ( सामान्य के अवश्य भासित होने में यह युक्ति है कि) सामान्य बहुत से विषयों के साथ सम्बद्ध रहता है, उनमें से कहीं संनिकर्ष होते ही उसकी भी उपलब्धि हो जाती है। विशेष ( असाधारण ) धर्म अल्प
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