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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे प्रत्यक्ष
न्यायकन्दली चक्षुरवयविना भूयोभिश्च तदवयवैः सह सन्निकर्षमपेक्षत इति न सहोपलम्भनियमः, सामग्रीभेदात् । अत एव दूरादव्यक्तग्रहणम्, गच्छतश्चक्षुरश्मेरन्तराले प्रकीर्णानामवयवानामर्थप्राप्त्यभावात् ।
केचित् सविकल्पकमेवैकं प्रत्यक्षमाचक्षते, व्यवसायात्मकत्वेन सर्वस्य व्यवहारयोग्यत्वात्, शब्दव्युत्पत्तिरहितानामपि तिरश्चामर्थविकल्पात् प्रवृत्तेः, तान् प्रत्याह-स्वरूपालोचनमात्रमिति। स्वरूपस्यालोचनमात्रं ग्रहणमात्रं विकल्परहितं प्रत्यक्षमात्रमिति यावत् । यदि हि वस्तुस्वरूपस्य निर्विकल्पकेन ग्रहणं नेष्यते, तदा तद्वाचकशब्दस्य स्मृत्यभावात् सविकल्पकमपि न स्यात् । अतः सविकल्पकमिच्छता निविकल्पकमप्येषितव्यम्, तच्च न सामान्यमानं गलाति, भेदस्यापि प्रतिभासनात् । नापि स्वलक्षणमात्रम, सामान्याकारस्य संवेदनात, व्यक्तचन्तरदर्शने प्रतिसन्धानाच्च । किन्तु सामान्यं विशेषं चोभयमपि गह्णाति, यदि परमिदं सामान्यमयं विशेष इत्येवं विविच्य न प्रत्येति, वस्त्वन्तरानुसन्धानविरहात्। पिण्डान्तरानुवृत्तिग्रहणाद्धि सामान्यं विविच्यते स्थान में रहता है, अतः उसके प्रत्यक्ष के लिए उसके आश्रय एवं आश्रय के अवयवों के साथ चक्षुरिन्द्रिय रूप अवयवी और उसके अवयवों का भी संनिकर्ष आवश्यक है । इस प्रकार सामान्य और विशेष दोनों के 'सहोपलम्भनियम' अर्थात् दोनों साथ ही उपलब्ध हों यह नियम नहीं है । क्योंकि दोनों के प्रत्यक्ष के कारण भिन्न हैं। यही कारण है कि दूर से वस्तुओं का अस्फुट ग्रहण होता है। चूंकि जाती हुई चक्षु की रश्मियों के बीच में बिखरे हुए कुछ अवयवों के साथ अर्थ का सम्बन्ध नहीं हो पाता।
___ कोई कहते हैं कि प्रत्यक्ष केवल सविकल्पक ही होता है, क्योंकि वही निश्चयात्मक होने के कारण सभी तरह के व्यवहार की योग्यता रखता है। जिसके द्वारा शब्दों की व्युत्पत्ति से सर्वथा रहित सर्पादि तिर्यक् योनियों के प्राणियों की भी विशेष अर्थ के ज्ञान से होनेवाली प्रवृत्तियाँ उपपन्न होती हैं। उन्हीं को लक्ष्य कर 'स्वरूपालोचनमात्रम्' यह पद लिखा गया है । 'स्वरूपालोचन' शब्द का ग्रहणमात्र अर्थात् विकल्प रहित केवल प्रत्यक्ष अर्थ है । निर्विकल्पक ज्ञान से यदि वस्तु के स्वरूप का ज्ञान न मानें तो फिर उस वस्तुस्वरूप के वाचक शब्द की स्मृति न हो सकेगी। उस स्मृति के न होने से सविकल्पक ज्ञान भी न हो सकेगा। अतः सविकल्पक ज्ञान को माननेवालों को निर्विकल्पक ज्ञान भी मानना ही पड़ेगा। निर्विकल्पक ज्ञान केवल सामान्य को ही नहीं ग्रहण करता, बल्कि उसमें 'भेद' (विशेष अर्थात् व्यक्ति ) का भी भान होता है। एवं निर्विकल्पक ज्ञान में केवल भेद (व्यक्ति) भी भासित नहीं होता। क्योंकि अनुभव के द्वारा यह सिद्ध है कि उसमें सामान्य भी भासित होता है। यदि यह कहें कि (प्र०) 'यह सामान्य है' 'यह विशेष है' इस प्रकार अलग २ दोनों का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि (निर्विकल्पक ज्ञान में) दूसरी वस्तु का ( अर्थात् ज्ञात वस्तु के सजातीय
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