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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम् तावद् द्विविधे
महत्यनेकद्रव्यवश्वोद्भूत
पदार्थेषूत्पद्यते । द्रव्ये रूप प्रकाशचतुष्टयसन्निकर्षाद् धर्मादिसामग्रये च स्वरूपालोचनमात्रम्, यह (प्रत्यक्ष ) द्रव्यादि पदार्थों का होता है । इनमें द्रव्य का प्रत्यक्ष दो प्रकार का है (१) निर्विकल्पक और ( २) सविकल्पक ( द्रव्य के निर्विकल्पक और सविकल्पक ) दोनों ही प्रकार के प्रत्यक्ष होते हैं । ( १ ) अनेक द्रव्यवत्त्व
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न्यायकन्दली
कारण
मिति । अक्षमक्षं प्रतीत्य प्राप्य यदुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षं प्रमाणमिति । विशेषजत्वमपि कार्यस्य समानासमानजातीयव्यवच्छेदसमर्थत्वाल्लक्षणं भवति । यथा यवबीजप्रभवत्वं यवाङ्कुरस्य, अत एव यवाङ्कुर इति व्यपदिश्यते । सुखदुःखसंस्काराणामपीन्द्रियजत्वात् प्रत्यक्षप्रमाणत्वप्रसङ्गः इति चेन्न, बुद्धयधिकारेण विशेषितत्वात् । अक्षमक्षं प्रतीत्य या बुद्धिरुत्पद्यते तत् प्रत्यक्षम् । सुखादयश्च न बुद्धिस्वभावाः कुतस्तेषु प्रसक्तिः ? यद्येवं सन्निकर्षस्य प्रामाण्यं न लभ्यते ? सत्यम् । इतो वाक्यान्न लभ्यते, यदि तु करणव्युत्पत्त्या तस्यापि कारणों से उत्पन्न होना भी लक्ष्य को समानजातियों और असमानजातियों से भिन्न रूप से समझाने में समर्थ होने के कारण लक्षण हो सकता है । ( जैसे कि ) यव के अङ्कुर से उत्पन्न होना हो व का लक्षण है, अत एव वह 'यवाङ्कुर' कहलाता है । ( प्र०) सुख, दुःख और संस्कार ये सभी भी तो इन्द्रिय से उत्पन्न होते हैं, अतः इन सबों में प्रत्यक्षलक्षण की आपत्ति होगी । ( उ० ) यह आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि प्रत्यक्ष का लक्षण बुद्धि निरूपण को आरम्भ करने के बाद कहा गया है ( तदनुसार ) प्रत्यक्ष का यह लक्षण निष्पन्न होता है कि इन्द्रिय के सम्बन्ध से उत्पन्न ओ ज्ञान वही प्रत्यक्ष प्रमाण है । ( प्र०) यदि यह बात है तो फिर यह उपपन्न नहीं होगा कि 'इन्द्रिय का सम्बन्ध प्रमाण है' | ( उ० ) यह ठीक है कि उक्त लक्षण वाक्य के द्वारा इन्द्रियसम्बन्ध में प्रामाण्य का लाभ नहीं होगा, किन्तु 'परिच्छेद' अर्थात् प्रमिति के कारण होने से इन्द्रियसम्बन्ध का प्रमाण होना भी अभीष्ट है । प्रकरण से यह समझा जाता है कि 'यह विद्या का निरूपण है' | अतः विद्या से बहिर्भूत संशय और विपर्यय में प्रामाण्य स्वतः खण्डित हो जाता है । 'अक्षम्प्रतीत्य यदुत्पद्यते ज्ञानम्' केवल ऐसी ही व्युत्पत्ति मानें ( अर्थात् अक्षम् अक्षम् यह वीप्सा न मानें ) तो फिर अतिप्रसिद्ध होने के कारण कभी किसी को यह भ्रान्ति भी हो सकती है कि 'बाह्येन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है' इस भ्रान्ति की सम्भावना को हटाने के लिए ही 'अक्षम् अक्षम्' वीप्सा से युक्त इस व्युत्पत्ति का आश्रय लिया गया है । 'प्रत्यक्ष ' शब्द 'कुगतिप्रादय:' इस सूत्र के द्वारा विहित 'प्रादिसमास' के द्वारा सिद्ध है । 'प्रतिगतमक्षम' इस समास के कारण विशेषय वाचक पद के अनुसार 'प्रत्यक्ष' पद में