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न्यायकादलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[ गुणे स्वप्न
प्रशस्तपादभाष्यम् उपरतेन्द्रियग्रामस्य प्रलीनमनस्कस्येन्द्रियद्वारेणव यदनुभवनं जिस व्यक्ति के सभी इन्द्रिय मन के प्रलीन होने के कारण
न्यायकन्दली भविष्यतीत्येतावन्मात्रप्रतीतिः स्यात् । सेयं सज्ञाविशेषानवधारणात्मिका प्रतीतिरनध्यवसायः।
_अनुमानविषयेऽपि नारिकेलद्वीपवासिन: सास्नामात्रदर्शनात् को नु खल्वत्र प्रदेशे प्राणी स्यादित्यनध्यवसायः। नारिकेलद्वीपे गवामभावात् तत्रत्यो लोकोऽप्रसिद्धगोजातीयः, तस्य देशान्तरमागतस्य वने सास्नामात्रदर्शनात् सामान्येन पिण्डमात्रमनुमाय तत्र जातिविशेषविषयत्वेन को नु खल्वत्र प्राणी स्यादित्यनवधारणात्मकं ज्ञानमनध्यवसायः, अध्यवसायविशेषावधारणज्ञानादन्यदिति व्युत्पत्त्या । नन्वयं संशय एव, अनवधारणात्मकत्वात् । न, कारणभेदात्, स्वरूपभेदाच्च । किञ्च, उभयविशेषानुस्मरणात् संशयो न त्वनध्यवसायः, प्रतीतिविशेषविषयत्वेनाप्यस्य सम्भवात्। तथानवस्थितोभय. किन्तु 'इसका नाम पनस है' इस आकार के उपदेश के अभाव स 'पनस' रूप विशेष का ज्ञान नहीं हो पाता अर्थात् 'यह पनस शब्द का अभिधेय अर्थ है' इस प्रकार का ज्ञान नहीं हो पाता। केवल इसका भी कोई नाम होगा' इतनी ही प्रतीति होती है । संज्ञा विशेष की यही 'अवधारणात्मक' प्रतीति 'अनध्यवसाय (रूप अविद्या ) है ।
__नारिकेल- द्वीपवासियों को इस देश में केवल सास्ना के देखने से गाय के विषय में 'यह कौन प्राणी है ? यह ज्ञान अनुमान के द्वारा जानने योग्य विषय का अनध्यवसाय है । अभिप्राय यह है कि नारिकेल द्वीप में गायें नहीं होतीं, अत: उस देश के निवासियों को गायों का ज्ञान नहीं रहता। उस देश का कोई व्यक्ति दूसरे देवा के बन में जाकर केवल सास्ना को देखने के बाद केवल पिण्ड का अनुमान करता है। इसके बाद उसे विशेष जाति के उस सास्नावाले व्यक्ति का 'यह कौन सा प्राणी' इस आकार का जो जान होता है वह अनुमान विषयविषयक अनध्यवसाय है। 'विशेषावधारणादन्यत्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार विशेषधर्म पूर्वक निश्चय रूप अवधारणात्मक न होने के कारण ही उक्त ज्ञान 'अनध्यवसाय' है। (प्र०) तो फिर यह संशय ही है, क्योंकि निश्चयात्मक नहीं है। (उ०) यह संशय नहीं हो सकता, क्योंकि इसका स्वरूप और इसके कारण दोनों ही संशय से दूसरे प्रकार के हैं। और भी बात है, दोनों कोटियों के असाधारण धर्मों के पश्चात् स्मरण से संशय होता है अनध्यवसाय नहीं, क्योंकि अनध्यवसाय में विषय होनेवाले पदार्थों के असाधारण धर्म यदि अज्ञात भी रहें तब भी अनध्यवसाय रूप ज्ञान हो सकता है । संशय और अनध्यवसाय इन दोनों में यही भेद है कि संशय में अनिश्चित दो कोटियों का सम्बन्ध रहता है, अनध्यवसाय में नहीं। चूंकि अनध्यवसाय रूप ज्ञान
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