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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे स्वप्न
प्रशस्तपादभाष्यम् माहारपरिणामार्थं वादृष्टकारितप्रयत्नापेक्षादात्मान्त:करणसम्बन्धान्मनसि क्रियाप्रबन्धादन्तहृदये निरिन्द्रिये आत्मप्रदेशे निश्चलं मनस्तिष्ठति, तदा प्रलीनमनस्क इत्याख्यायते । प्रलीने च तस्मिन्नपरतेन्द्रियग्रामो भवति, तस्यामवस्थायां प्रबन्धन प्राणापानसन्तानप्रवृत्तावात्ममनःसंयोगविशेषात् स्वापाख्यात् संस्काराच्चेन्द्रियद्वारेणैवासत्सु विषयेषु प्रत्यक्षाकारं स्वप्नज्ञानमुत्पद्यते । होता है ? ( उ० ) शरीर के अति सञ्चालन से श्रान्त प्राणियों को विश्राम देने के लिए एवं भोजन के परिपाक के लिए हृदय के बीच वाह्य इन्द्रियों से रहित आत्मा के प्रदेश में जिस समय जिस पुरूष का मन (इष्ट प्राप्ति या अनिष्ट की निवृत्ति के लिए ) आत्मा के द्वारा जानबूझ कर निष्क्रिय होकर बैठ जाता है, उस समय उस व्यक्ति को 'प्रलीनमनस्क' कहते हैं । (बाह्येन्द्रिय प्रदेश में मन की यह निष्क्रिय स्थिति ) मन की उन क्रियाओं से होती है जो अदृष्ट युक्त आत्मा और अन्त:करण ( मन ) के सम्बन्ध से उत्पन्न होती है। इस प्रकार मन के निष्किय होकर बैठ जाने के कारण बाह्य इन्द्रियां अपने कामों को करने में (उस समय , असमर्थ हो जातो हैं। ऐसी अवस्था में प्राणवायु और अपान वायु की प्रवृत्तियां अधिक हो जाती हैं । ऐसी स्थिति में 'स्वाप' नाम के आत्मा और मन के विशेष प्रकार के संयोग, एवं संस्कार इन दोनों से ( मन रूप ) इन्द्रिय के द्वारा ही अविद्यमान विषयक प्रत्यक्षाकारक ( प्रत्यक्ष नहीं ) जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे 'स्वप्नज्ञान' कहते हैं।
न्यायकन्दली यग्रामो भवति, अन्तःकरणानधिष्ठितानामिन्द्रियाणां विषयग्रहणाभावात् । तस्यां प्रलीनमनोऽवस्थायां प्रबन्धेन बाहुल्येन प्राणापानवायुसन्ताननिर्गमप्रवेशलक्षणायां प्रवृत्तौ सम्भवन्त्यामात्ममनःसंयोगात् स्वापाख्यात् स्वाप इति नामधेयात् में 'क्रियासन्तान' अर्थात् क्रियाओं के समूह की उत्पत्ति होती है। उस संयोग को इस काम के लिए अदृष्ट से प्रेरित प्रयत्न के साहाय्य की भी अपेक्षा होती है। पुरुष के हृदय के बीच 'निरिन्द्रिय' अर्थात् बाह्य इन्द्रियों के सम्बन्ध से रहित आत्मा के एक प्रदेश में जिस समय मन निश्चल रहता है, उसी समय वह पुरुष 'प्रलीनमनस्क' कहलाता है । उसके अर्थात् मन के प्रलीन होने पर पुरुष 'उपरतेन्द्रिय ग्राम' होता है, ( अर्थात् उसके इन्द्रिय विषयों को ग्रहण करने से विमुख हो जाती हैं ) क्योंकि अन्तःकरण (मन) प्राण और अपान वायुओं के समुदाय के गमनागमन रूप प्रलीन वृत्ति के उत्पन्न होने पर
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