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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुणे विपर्यय
प्रशस्तपादभाष्यम् वाश्व इति । असत्यपि प्रत्यक्षे प्रत्यक्षाभिमानो भवति, यथा व्यपगतअभाव, आत्मा और मन के संयोग एवं अधर्म इन तीन हेतुओं से होती है। ( इन कारणों में से ) आत्ममनःसंयोग को उक्त दोनों विषयों के ज्ञान से उत्पन्न संस्कार का साहाय्य भी अपेक्षित होता है। यह ( विपर्यय ) कफ, पित्त और वायु के प्रकोप से बिगड़ी हुई इन्द्रियवाले पुरुष को ही होती है। जैसे गो में अश्व का ज्ञान (विपर्यय है )। (विपर्यय के और उदाहरण
न्यायकन्दली
व्याप्रियमाणे चक्षषि तत्संयुक्क्तमेव तु गोपिण्डमश्वात्मना गलती यदीयं नेन्द्रियजा, का तीन्द्रियजा भविष्यति विपरीतख्याति: ? अत एवान्यस्यान्यारोपेण प्रतिभासनाद् योऽपि निरधिष्ठाने विपर्ययस्तत्राप्यवर्तमानोऽर्थः स्वरूपविपरीतेन वर्तमानाकारेण प्रतीयत इति विपरीतख्यातिरेव, न त्वसत्ख्यातिः, स्वरूपतोऽर्थस्य सम्भवादसतो वावभासनायोगात् । यत्र सदशमर्थमधिष्ठाय विपर्ययः प्रवर्तते, तत्र सादृश्यं कारणम्, निरधिष्ठाने तु विभ्रमे मनोदोषमात्रानुबन्धिनि नास्य सम्भवः, यथा हि कामातुरस्येतस्ततो भाविनि स्त्रीनिर्भासे विज्ञाने। संस्कारोऽपि तत्रैव कारणं यत्र सविकल्पको
सादृश्य के अनुरोध से अश्व का अनुभव रूप ही ज्ञान होता है। अतः सभी जगह सभी का प्रतिभास (विपर्यय भी) नहीं होता, क्योंकि कथित सादृश्य और संस्कार ये दोनों ही उसको नियमित करते है। अत एव 'गुरु' इसे 'इन्द्रियजनित भ्रान्ति' कहने हैं। यह भ्रान्ति अगर इन्द्रिय से उत्पन्न न हो, केवल संस्कार के सामर्थ्य से ही उत्पन्न हो तो फिर गोरूप आश्रय से दूर रहनेवाले एवं आभय में न रहनेवाले अश्वस्व को ही प्रकाशित करेगी। अथवा जिस पुरुष की इन्द्रियों का व्यापार निरुद्ध है उसे भी उक्त आकार की भ्रान्ति होगी। व्यापार से युक्त चक्षु के साथ संयुक्त गोपिण्ड को अश्वरूप से ग्रहण करती हुई भी अगर यह अनुभूति भ्रान्ति नहीं है तो फिर कौन सी विपरीतख्याति इन्द्रियजनित होगी ? अत एव विपर्यय विपरीतख्याति ही है असत्रख्याति नहीं, क्योंकि विपर्यय में एक का ही दूसरे रूप से भान होता है। एवं जहाँ बिना अधिष्ठान के भी विपर्यय होता है, वहाँ भी अवर्तमान अर्थ ही अपने विरुद्ध वर्तमान की तरह प्रतिभासित होता है। चूंकि स्वरूपतः वस्तु की सम्भावना है, एवं सर्वथा अविद्यमान वस्तु का भान असम्भव है। जहां सदृश वस्तु को अधिष्ठान बनाकर विपर्यय की प्रवृत्ति होती है, वहाँ सादृश्यज्ञान ही विपर्यय का कारण है । जहाँ केवल मन के दोष से बिना अधिष्ठान का ही विपर्यय होता है, जैसे कि कामातुर पुरुष को चारो तरफ की सभी वस्तुएँ स्त्रीमय दीखती है, वहाँ सादृश्य का ज्ञान कारण नहीं हो सकता। संस्कार
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