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४२४ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
गुण विपर्ययन्यायकन्दली एव भवतीति। संशयस्तावत् प्रत्यक्षानुमानविषय एव भवतीति विपर्ययोऽपि तद्विषये भवतीत्यपिशब्दार्थः । प्रत्यक्षानुमानविषय एव भवतीति प्रत्यक्षानुमानव्यतिरेकेण प्रमाणान्तराभावात् । प्रत्यक्षविषये तावत् प्रसिद्धानेकविशेषयोरपि प्रसिद्धाः पूर्व प्रतीता अनेके विशेषाः सास्नादयः केसरादयश्च ययोस्तौ प्रसिद्धानेकविशेषौ गवाश्वौ, तयोर्मध्ये योऽतस्मिन्ननश्वे गवि तदिति प्रत्ययोऽश्व इति प्रत्ययः स विपर्ययः ।
ननु यदि गवि गोत्वसास्नादयश्च विशेषाः परिगृह्यन्ते, तदा विपर्ययो न भवति । भवति चेदस्यानुपरमप्रसङ्गस्तत्राह-अयथार्थालोचनादिति । अयथार्थालोचनं यथार्थालोचनस्याभावो यथासावर्थो गौः सास्नाादिमांस्तथाग्रहणाभाव इति यावत् । तस्मादस्मिस्तदिति प्रत्ययो भवतीति । अनेन विशेषानुपलम्भस्य कारणत्वमुक्तम् । सन्निहिते पिण्डे गोत्वस्याग्रहणे को हेतुः, को वा हेतुरसन्निहितस्याश्वत्वस्य प्रतीतावित्याह-पित्तकफानिलोपहतेन्द्रियस्येति । पित्तं च कफाचानिलश्च तेरुपहतं दूषितमिन्द्रियं यस्य, तस्यायं विपर्यय इति। वातपित्तश्लेष्मादिदोषाणामसन्निहितप्रतिभासे सन्निहितार्थाप्रतिभासे च सामर्थ्यं समर्थितम् । यदि दोषसामर्थ्यादेवासन्निहितं हुआ है कि जिस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा ज्ञात विषयों का ही संशय होता है, उसी प्रकार 'विपर्यय' भी प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से ज्ञात विषयों का ही होता है, क्योंकि इन दोनों से भिन्न कोई प्रमाण ही नहीं है। प्रत्यक्षविषये तावत्' इत्यादि से प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाले विषय का विपर्यय दिखलाया गया है । 'प्रसिद्धा अनेके विशेषा ययोः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार पूर्व में ज्ञात ( गाय के ) सास्नादि विशेष धर्म एवं ( अश्व के ) केसरादि विशेष धर्म जिन दो वस्तुओं के हैं, वे दोनों ही अर्थात् गो और अश्व ही लिखित प्रसिद्धानेकविशेषयोः' इस पद के अर्थ हैं। इन दोनों में से 'अतस्मिन्' अर्थात् जो तत्स्वरूप नहीं है उसमें अर्थात् अश्व से भिन्न गो में 'तत्' अर्थात् 'यह अश्व है' इस आकार का जो प्रत्यय वही विपर्यय' है। (प्र.) यदि गो के गोत्व और सास्ना प्रभृति असाधारण धर्म गृहीत होते हैं तो फिर उक्त ज्ञान विपर्यय ही नहीं होगा। यदि उन असाधारण धर्मों के ज्ञान के रहते हुए भी उक्त विपर्ययरूप ज्ञान हो सकता है तो फिर उसकी विरति ही नहीं होगी। इसी प्रश्न के उत्तर के लिए 'अयथार्थालोचनात्' यह पद लिखा गया है । ( इस वाक्य में प्रयुक्त) 'अयथार्थालोचन' शब्द का अर्थ है 'यथार्थालोचन' ( यथार्थज्ञान ) का अभाव, अर्थात् गोरूप अर्थ जिस प्रकार का है (गोत्व एवं साम्नादि से युक्त है) उस प्रकार से अर्थात् गोत्वरूप से एवं सास्नादिमत्त्वरूप से गो के ज्ञान का अभाव ( भी विपर्यय का कारण है )। उक्त यथार्थ ज्ञान के अभाव के द्वारा जो जिस रूप का नहीं है उसका उस रूप से ज्ञान(रूप विपर्यय) की उत्पत्ति होती है। इससे गवादि के
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