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४३१
प्रकरणम्]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-यदि रजतज्ञानं न शुक्तिकाविषयं किं त्वेषा रजतस्मृतिः, तदा तस्मिन् ज्ञाने रजतार्थी पूर्वानुभूते एव रजते प्रवर्तत न शुक्तिकायाम्, स्मृतेरनुभवदेशे प्रवर्तकत्वात् । अथ मन्यसे-इन्द्रियेण रजतस्य साधारणं रूपं शुक्तिकायां गृहीतम्, न शुक्तिकात्वं विशेषः, रजतस्मरणेन च तदित्युल्लेखशून्येनानिर्धारितदिग्देशं रजतमात्रमुपस्थापितम्, तत्रानयोगुह्यमाणस्मर्यमाणयोग्रहणस्मरणयोश्च सादृश्याद् विशेषाग्रहणाच्च विवेकमनवधारयन् शुक्तिकादेशे प्रवर्तते, सामानाधिकरण्यं शुक्तिकारजतयोरध्यवस्यति रजतमेतदिति । तदप्ययुक्तम्, अविवेकस्याप्यग्रहणात् । रजताभेदग्रहो हि रजतार्थिनः शुक्तिकायां प्रवृत्तिकारणं न सादृश्यम्, भेदग्रहणं च ततो निवृत्तिकारणम्, तदुभयोरभावान्न प्रवर्तते न निवर्तत इति स्यात्, न तु नियमेन प्रवर्तत, विशेषाभावात् । एवं सामानाधिकरण्यमपि न स्यादभेदाग्रहणस्यापि वैयधिकरण्यहेतोः सम्भवात् । तथा च प्रवृत्त्युत्तरकालीनो नेदं रजतमिति बाधकप्रत्ययोऽपि न घटते, शुक्तिकारजतयो दो न गृहीतो न तु तादात्म्यमध्यवसितं येनेदं प्रतिषिध्यते, भेदाग्रहणप्रसञ्जितस्य शुक्तिकायां रजत.
(उ०) इस प्रसङ्ग में हमलोग कहते हैं कि उक्त रजतविषयक ज्ञान में अगर शुक्ति विषय न हो, वह केवल रजत की स्मृति ही हो तो फिर इस ज्ञान के बाद रजत को प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाला पुरुष पहिले से अनुभूत रजत में ही प्रवृत्त होता शुक्तिका में नहीं, क्योंकि स्मृति ( अपने कारणीभूत ) पूर्वानुभव के विषय रूप देश में ही प्रवृत्ति का उत्पादन कर सकती है। (प्र०) प्रकृत में रजत का साधारण रूप ( इदन्त्व ) ही इन्द्रिय से शुक्तिका में गृहीत होता है, शुक्तिका का विशेष धर्म शुक्तिकात्व नहीं। पूर्वानुभव की विषय तत्ता' के सम्बन्ध से सर्वथा रहित रजत की स्मृति से अनिश्चित केवल रजत ही जिस किसी देश में उपस्थित किया जाता है । अनुभूत एवं भृत दोनों विषयों के एवं अनुभव और स्मृति दोनों ज्ञानों के सादृश्य, एवं दोनों विषयों के असाधारण धर्मों का अज्ञान, इन दोनों से रजत की इच्छा रखनेवाले पुरुष को शुक्तिका और रजत के भेद का निश्चय नहीं हो पाता। अतः वह पुरुष शुक्ति रूप देश में ही रजत के लिए प्रवृत्त हो जाता है। एवं शुक्तिका और रजत इन दोनों में अभेद को यह निश्चय करता है कि 'यह रजत है'। (उ०) किन्तु उक्त कथन असङ्गत है, क्योंकि ( उक्त स्थल में) अभेद का ज्ञान नहीं होता, एवं शुक्तिका में रजत के अभेद का ज्ञान प्रवृत्ति का कारण है, दोनों का सादृश्य नहीं। एवं रजत और शुक्ति के भेद का ज्ञान (शुक्तिका में रजतार्थी की) निवृत्ति का कारण है। इस प्रकार ( शुक्तिका में 'इदं रजतम्' इत्यादि स्थलों में) प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों में से एक भी नहीं बनेगी, क्योंकि न वहाँ अभेद का ज्ञान है न भेद का । एवं उक्त ज्ञान
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