________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रकरणम्
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अन्ये तु संशयप्रभेद एव तर्कोऽनवधारणात्मकत्वादित्याहुः ।
संशयस्तावत् । तावच्छब्दः क्रमार्थः। संशयस्तावत् कथ्यते इत्यर्थः । प्रसिद्धानेकविशेषयोरिति। प्रसिद्धाः पूर्व प्रतीता अनेकविशेषा असाधारणधर्मा चक्रकोटरादयः शिरःपाण्यादयश्च ययोः स्थाणुपुरुषयोस्तयोः सादृश्यमात्रस्य साधारणधर्ममात्रस्य क्वचिदेकत्र मिणि दर्शनादुभयोः स्थाणुपुरुषयोविशेषाणां वनकोटरादीनां शिरःपाण्यादीनां च पूर्व प्रतीतानां स्मरणादधर्माच्च किंस्विदिति उभयावलम्बी विमर्शः संशयः। किं स्थाणुः ? कि वा पुरुषः ? इति अनवस्थितोभयरूपेणोभयविशेषसंस्पर्शी विमर्शी विरुद्धार्थावमर्शो ज्ञानविशेषः संशयः।
____सादृश्यमात्रदर्शनादिति । मात्रग्रहणसामा विशेषाणामनुपलम्भो गम्यते। दर्शनशब्द उपलब्धिवचनो न प्रत्यक्षप्रतीतिवचनोऽनुमेयस्यापि सामान्यस्य संशयहेतुत्वात् । सादृश्योपलम्भाभिधानाद्धयंपलम्भोऽपि लभ्यते । अस्यानुपलम्भे तद्धर्मस्य सादृश्यस्योपलम्भाभावात् संशयोऽपि धर्मिण्येव, न सादृश्ये, तस्य निश्चितत्वात् । सादृश्यमिति च साधारणधर्ममात्रं कथ्यते, नानेकार्थसमवेतं सादृश्यम्, ___ कोई सम्प्रदाय तर्क को निश्चयात्मक न होने के कारण संशय रूप ही मानते हैं।
'संशयस्तावत्' इत्यादि सन्दर्भ का 'तावत्' शब्द 'क्रम' का बोधक है, तदनुसार इसका यही अर्थ है कि क्रमप्राप्त संशय का निरूपण करते हैं । (प्रसिद्ध) 'अनेकविशेषयोः' (इत्यादि सन्दर्भ का) "प्रसिद्धा अनेकविशेषा ययोः, तयोः सादृश्य मात्रस्य दर्शनादुभययोः स्मरणादधर्माच्च किस्विदित्युभयालम्बी विमर्शः संशय.” इस विवरण के अनुसार स्थाणु एवं पुरुष रूप जिन दो धर्मियों में से स्थाणु की वक्रता एवं कोटर प्रभृति, एवं पुरुष के शिर पैर प्रभृति पहिले से ज्ञात हैं, इन पूर्वज्ञात विषयों के स्मरण और अधर्म इन दोनों से 'किस्वित्' अर्थात् यह स्थाणु है या पुरुष' इत्यादि आकार के दोनों विषयों को ग्रहण करनेवाला 'विमर्श' अर्थात् विरुद्ध दो विषयों का विशेष प्रकार का ज्ञान ही 'संशय' है । 'सादृश्यमात्रदर्शनात्' इस वाक्य में 'मात्र' पद के उपादान से उन दोनों विषयों (स्थाणु और पुरुष ) के असाधारण धर्म की अनुपलब्धि का आक्षेप होता है (अर्थात् दोनों के सादृश्य ज्ञान की तरह दोनों के विशेष घर्मों का अज्ञान भी संशय के लिए आवश्यक है ) । उक्त वाक्य के 'दर्शन' शब्द से सभी प्रकार के ज्ञान अभिप्रेत हैं, केवल प्रत्यक्ष ही नहीं। क्योंकि अनुमान के द्वारा ज्ञात साधारण धर्म से भी संशय होता है। सादृश्य को धर्मज्ञान का कारण कहने से धर्मी के ज्ञान में संशय की कारणता स्वयं कथित हो जाती है। क्योंकि धर्मी के ज्ञान के बिना सादृश्य रूप धर्म का ज्ञान सम्भव ही नहीं हैं । धर्मी में ही संशय होता है, सादृश्यादि (उभय साधारण ) धर्मों में नहीं, क्योंकि वे तो निश्चित हैं । 'सादृश्य' शब्द से ( संशय के दोनों कोटियों में रहनेवाले ) सभी
For Private And Personal