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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली अत्रोच्यते-कि परपक्षाभावप्रतीतिस्तर्कः ? किं वा स्वपक्षसम्भावना ? आये पक्षे प्रमाणमेवेदम, ज्ञातुरनित्यत्वे संसारापवर्गयोरसंभव इति ज्ञानं यद्यप्रमाणम्, नास्माद् विपक्षाभावसिद्धिः, अप्रमाणेन कस्यचिदर्थस्य सिद्धरयोगादित्यत्रास्याप्रवृत्तिरेव विषयविवेकाभावात् । अथ सिद्धयत्यस्माद् विपक्षाभावस्तदा प्रमाणमिदं प्रत्यक्षादिषु कस्मिश्चिदन्तर्भविष्यति, तद्वयतिरेकेणान्यस्य प्रतीतिसाधनाभावादित्यकामेनाभ्युपगन्तव्यम् । प्रसङ्गोऽपि विरोधोद्भावनम्, तच्च कस्यचिद् बलीयसो विपरीतप्रमाणस्योपदर्शनम्। कस्तत्र विपरीतात् प्रमाणात् तदुपदर्शकाच्च वचनादन्यस्तर्कः ?
अथ स्वपक्षसम्भावनात्मकः प्रत्ययस्तर्कः ? अस्योत्पत्तौ कि कारणम ? न तावत्स्वपक्षसाधकं प्रमाणम्, तस्याप्रवृत्तः। तर्केण विवेचिते विषये स्वपक्षसाधक प्रवर्तते । तदेव यदि तस्य कारणम्, मुव्यक्तमन्योन्याश्रयत्वम् ।
विपक्षाभावे प्रतीते स्वपक्षसम्भावनोपजायत इति विपक्षाभावप्रतीतिरस्य कारणमिति चेत् ? तहि विपक्षाभावलिङ्गकमनुमानमेवैतत्, परस्परविरुद्धयोरेकप्रतिषेधस्येतरविधिनान्तरीयकत्वात् । भवत्येवं यदि विषयमवधार
(उ०) इस प्रसङ्ग में हम ( सिद्धान्तियों) का कहना है कि तक (१) प्रतिपक्षी से माने हुए सिद्धान्त के अभाव का प्रतीतिरूप है ? अथवा (२) अपने सिद्धान्तपक्ष का सम्भावनारूप है ? यदि इनमें पहिला पक्ष मानें, तब तो तर्क का प्रमाण ही मानना पड़ेगा (जिससे तर्क विद्यारूप ज्ञान में ही अन्तर्भूत हो जाएगा) क्योंकि 'ज्ञाता' (आत्मा) को यदि अनित्य मानेंगे तो संसार और अपवर्ग दोनों ही अनुपपन्न होंगे. यह ज्ञान यदि अप्रमाण है, तो इससे विपक्षाभा (अर्थात् आत्मा में नित्यत्व) की सिद्धि न हो सकेगी, क्योंकि अप्रमाणभूत ज्ञान से किसी भी विषय की सिद्धि सम्भव नहीं है । अतः प्रकृत में विपक्ष के अभाव की सिद्धि के लिए उक्त तर्करूप ज्ञान प्रवृत्त ही नहीं होगा, क्योंकि उसका विषय ही निद्दिष्ट नहीं है । यदि तक से विपक्षाभाव की सिद्धि होती है, तो फिर यह प्रमाण ही है। अतः प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण में ही अन्तर्भूत हो जाएगा । क्योंकि इच्छा न रहने पर भी यह मानना ही पड़ेगा कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों को छोड़कर प्रतीति का कोई दूसरा साधन नहीं है । 'प्रसङ्ग' भी विरोध के उद्भावन को छोड़कर और कुछ नहीं है। विरोध का यह उद्भावन बलिष्ठ विरोधी प्रमाण का प्रदर्शन ही है । तर्क भी विरोधी प्रमाणों और उनके प्रतिपादक वाक्यों से भिन्न और कुछ नहीं है।
यदि तर्क को अपने पक्ष के सम्भावनात्मक ज्ञान रूप द्वितीय पक्ष मानें, तो फिर पूछना है कि इसका कारण कौन है ? अपने पक्ष का साधक प्रमाण तो उसका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह इस ज्ञान के उत्पादन के लिए प्रवृत्त ही नहीं होगा, क्योंकि तर्क के द्वारा विचार किये हुए विषयों में ही अपने पक्ष का साधक प्रमाण प्रवृत्त होता है, यही प्रमाण अगर तर्क का भी कारण हो तो इस पक्ष में अन्योन्याभय दोष स्पष्ट
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