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४१६ न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[ गुणे बुद्धिन्यायकन्दली अनेन तूत्पत्तिधर्मकत्वं व्युदस्यानुत्पत्तिधर्मकत्वं सम्भावयिताविषये विवेचिते सत्यसत्प्रतिपक्षत्वादनुमानं प्रवर्तते इति विषयविवेचनद्वारेण प्रमाणानुग्राहकतया तर्कस्तत्वज्ञानाय घटते, प्रमाणस्य करणत्वेनेतिकर्तव्यतास्थानीयतर्कसहायस्यैव स्वकार्य पर्यवसाात् । नानपेक्षितदृढमुष्टिनिपीडितो जाल्मकरपञ्जरोदरे विलुठन्नपि कठोरधारः कुठारः प्रतितिष्ठति निष्ठरस्यापि काष्ठस्य छेदाय । तथा चोक्तम् ---
नहि तत्करणं लोके वेदे वा किञ्चिदीदृशम् । इतिकर्तव्यतासाध्ये यस्य नानुग्रहेथिता ॥ इति ।
यदि पुनरेवं तर्को नेष्यते परस्यानिष्टापादनरूपः प्रसङ्गोऽपि नाभ्युपगन्तव्यः स्यात् ? स हि तर्कादनतिरिच्यमानात्मा, अस्ति च वैशेषिकाणामपि प्रसङ्गः, न प्रसङ्गो हेतुराश्रयासिद्धतादिदोषात् ।
(प्र०) इस 'सम्भावना प्रत्यय' रूप तर्क का प्रयोजन क्या है ? (उ०) तत्त्व का ज्ञान ही इसका भी प्रयोजन है। क्योंकि प्रतिपक्ष (बाध) निश्चय की तरह प्रतिपक्ष संशय के रहने पर भी हेतु की प्रवृत्ति नहीं होती है। क्योंकि कोई भी वस्तु (परस्पर विरुद्ध) दो रूपों का नहीं होता। जैसा कि भट्टमिश्र ने कहा है कि 'जब तक विपक्ष में अव्यतिरेकित्व अर्थात् बाधाभाव का संशय (भी) रहेगा, तब तक हेतु में साध्य की सिद्धि करने का सामर्थ्य कहाँ से आएगा।' इस प्रकार आत्मा से उत्पत्तिधर्मकत्व को हटा कर विषय के विवेचित होने पर सत्प्रतिपक्ष दोष के हट जाने के कारण सम्भावयिता (तर्क करनेवाला पुरुष) अनुमान में प्रवृत्त होता है। इस रीति से विषय-विवेचन के द्वारा प्रमाण का सहायक होने के कारण तर्क भी तत्त्वज्ञान का सम्पादक होता है। प्रमाण करण रूप है । 'इतिकर्त्तव्यता' (करण से कार्य सम्पादन की रीति) के साहाय्य के बिना कोई करण अपना कार्य नहीं कर सकता। प्रमाण रूप करण का तर्क ही 'इतिकर्तव्यता' की जगह है। अतः इसके साहाय्य से ही प्रमाण अपने कार्य में सफल हो सकता है। कैसा ही तीखे धार की कुल्हाड़ी हो, उसको पकड़नेवाला चाहे जितना बलवान् हो यदि वह गलत ढंग से उसको पकड़ता है, तो फिर उससे कठोर काठ का छेदन नहीं हो सकता, (अतः इतिकर्तव्यता का साहाय्य आवश्यक है)। जैसा कहा भी गया है कि लौकिक (कुठारादि) या वैदिक (यागादि) कोई भी ऐसा करण नहीं है, जिसे अपने कार्य के सम्पादन में इतिकर्तव्यता के साहाय्य की अपेक्षा न हो। इश प्रकार तत्त्वज्ञान के लिए उपयोगी तर्क को यदि स्वीकार नहीं करेंगे तो फिर (प्रसङ्ग) को भी मानना सम्भव नहीं होगा, क्योंकि वह भी प्रतिपक्षी के अनभीष्ट पक्ष का उपस्थापन स्वरूप ही है। इस प्रकार तर्क से प्रसङ्ग में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु वैशेषिक लोग भी प्रसङ्ग की सत्ता मानते ही हैं।
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