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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे बुद्धि
प्रशस्तपादभाष्यम्
वक्रादिविशेषानुपलब्धितः स्थाणुत्वादिसामान्यविशेषानभिव्यक्तावुभयविशेषानुम्मरणादुभयत्राकृष्यमाणस्यात्मनः प्रत्ययो दोलायते-कि नु खल्वयं स्थाणुः स्यात् पुरुषो वेति । (टेढ़ापन ) और हस्तपादादि असाधारण धर्मों का अज्ञान, दोनों कोटियों में से प्रत्येक में रहनेवाले स्थाणुत्वपुरुषत्वादि जाति रूप विशेषधर्मों का अप्रत्यक्ष, एवं इन दोनों जातियों की पश्चात्स्मृति, इन सभी कारणों से पुरुष का चित्त झूले की तरह स्थाणु और पुरुष दोनों तरफ डोलता है और उसे संशय होता है कि यह ( सामने दीखनेवाला) स्थाणु है ? या पुरुष ?
न्यायकन्दली नन्त्यादिति । यदि नामार्थस्य विषयस्यानन्तत्वं बुद्धरनेकविधत्वे किमायातम् ? तत्राह-प्रत्यर्थनियतत्वाच्चेति । प्रत्यर्थं प्रतिविषयमस्मदादिबुद्धयो नियताः, अर्थाश्चानन्ता इति प्रत्येकं तत्र बुद्धयोऽप्यनन्ताः । यदि क्वचिदनेकविषयमेकं विज्ञानं तदपि तावदर्थनियतत्वात् तदर्थाद् विज्ञानान्तराद् विलक्षणमेवेत्यदोषः।
बुद्धेविषयभेदेन सत्यपि भेदे संक्षेपतो द्वैविध्यमाह-तस्या इति । निःसन्दिग्धाबाधिताध्यवसायात्मिका प्रतीतिविद्या, तद्विपरीता चाविद्येति । अत्र प्रतिपादनमात्रस्य विवक्षितत्वात् पश्चादुद्दिष्टामप्यविद्यां प्रथमं कथयतिकहा है कि 'बुद्धेः प्रति संवेदी पुरुषः ।' अर्थात् बुद्धि में आरूढ़ आकारों को ही पुरुष अनुभव करता है। वृत्ति को यदि अनेक मानें तो फिर बुद्धि को भी नाना मानना पड़ेगा ही, जिससे बुद्धि की एकता खतरे में पड़ जाएगी, इन सभी दोषों की भी कल्पना करनी चाहिए।
'सा चानेकप्रकारा' इत्यादि सन्दर्भ से बुद्धि के भेदों का निरूपण करते हैं । 'अर्थानन्त्यात्' इस पद के द्वारा इसमें हेतु दिखलाया गया है (कि बुद्धि अनेक प्रकार की क्यों हैं ?) यदि अर्थ या विषय अनन्त है, तो फिर इसलिए बुद्धियाँ क्यों अनेक हों ? इसी प्रश्न का समाधान 'प्रत्यर्थनियतत्वाच्च' इस वाक्य के द्वारा दिया गया है । 'प्रति अर्थ' अर्थात् प्रत्येक विषय में हमलोगों की बुद्धियाँ नियत रूप से अलग हैं । ये 'अर्थ' या विषय असंख्य हैं, फिर बुद्धियाँ भी अवश्य ही अनन्त होंगी। जहाँ कहीं अनेक विषयक एक ज्ञान उपलब्ध भी होता है, वह भी उतने अर्थों में नियत तो है ही, किन्तु जो अपने विषयों से भिन्नविषयक या अल्पाधिक-विषयक ज्ञानों से भिन्न भी हैं। इस प्रकार (विषयभेद से ज्ञानभेद
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