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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
प्रशस्तपादभाष्यम् संशयः। स च द्विविधः ---अन्तर्बहिश्च । अन्तस्तावद् आदेशिकस्य सम्यङ् मिथ्या चोद्दिश्य पुनरादिशतस्त्रिषु कालेषु संशयो भवति-- 'किन्नु सम्यङ् मिथ्या वा' इति । है। (१) अन्तःसंशय ( का उदाहरण यह है कि जहाँ ) किसी ज्योतिषी ने ( एक समय एक व्यक्ति के ग्रहस्थिति को देखकर उसे ) कहा कि तुम्हें अमुक इष्ट या अनिष्ट फल ) भूत काल में मिल चुका है, या भविष्य में मिलनेवाला है (या) वर्तमान में भी है। उनका यह फलादेश सत्य हुआ। किन्तु उनके ही अन्य निर्देश मिथ्या सिद्ध हुए। ( ऐसी स्थिति में वही यदि ) पुनः फलादेश करते हैं तो उस व्यक्ति को ज्योतिषी के इस आदेश से उत्पन्न अपने ज्ञान में संशय होता है कि 'यह सत्य है या मिथ्या ?'
न्यायकन्दली भवतीत्यर्थः। बुद्धेविषयः सुखाद्याकारः प्रत्ययः। तथा चाह स एव भगवान्- 'शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति, अनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रत्यवभासते" इति ।
एतत् सांख्यमतं निराकर्तुमाह-बुद्धिरित्यादि।
यस्या अमी पर्यायशब्दाः सा बुद्धिः। या पुनरियं प्रक्रियोपदर्शिता सा प्रतीत्यभावादेव पराणुद्यते । विषयहानोपादानानुगुणमुत्पादव्ययधर्मकमेकम, तदधिकरणं चापरम्, यस्य तदुत्पादात् प्रवृत्तिनिवृत्ती स्याताम्, इत्युभयं प्रत्यात्ममनुभयते, न प्रकारान्तरम् । या चास्या बुद्धवत्तिः सा कि बुद्धरन्याऽनन्या वा ? न तावदन्या, वृत्तिवृत्तिमतोरैकान्तिकतादात्म्याभ्युपगमात् । अथानन्या, तदा आकार के) प्रत्यय ही बुद्धि के विषय हैं। जैसा कि भगवान् पतञ्जलि ने ही कहा है कि पुरुष शुद्ध (अपरिणामी) होने पर भी बुद्धि को देखी हुई वस्तुओं को ही उसके पीछे देखता है। उसके बाद देखने ही के कारण विषय स रूप न होने पर भी विषय रूप से प्रतिभासित होता है।
इसी सांख्यमत का खण्डन करने के लिए 'बुद्धिः' इत्यादि पक्ति लिखी गई है । अर्थात् अभिधावृत्ति के द्वारा इन सभी शब्दों से जिसका बोध हो वही 'बुद्धि' है। सांख्य के अनुयायियों को जो रीति ऊपर लिखी गयी है वह साधारण प्रतीति के विरुद्ध होने के कारण ही रूण्डित हो जाती है। बुद्धि एक ऐसी वस्तु है जिसके द्वारा (अभिमत) विषयों को ग्रहण और (प्रतिकूल विषयों का) त्याग होता है। एवं जिसकी
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