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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
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[गुणे बुद्धिप्रशस्तपादभाष्यम् विनाशः, पिण्डकर्मणा च दिकूपिण्डविभागः क्रियते, सामान्यबुद्धेश्चोत्पत्तिरित्येकः कालः। ततः संयोगविनाशात् पिण्डविनाशः, विभागाच्च दिकपिण्डसंयोगविनाशः, सामान्यज्ञानादपेक्षाबुद्धेविनाश इत्येतत् सर्व युगपत् त्रयाणां समवाय्यसमवायिनिमित्तकारणानां विनाशात् परत्वस्य विनाश इति ॥
बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानं प्रत्यय इति पर्यायाः । सा चानेकप्रकारा, अर्थानन्त्यात् प्रत्यर्थनियतत्वाच्च । उत्पादक संयोग का विनाश, और अवयवी ( पिण्ड ) की क्रिया, उसका पूर्वदिकप्रदेश के साथ विभाग और सामान्य विषयक बुद्धि की उत्पत्ति, इतने सारे काम एक ही समय होते हैं। इसके बाद उक्त संयोग के विनाश से पिण्ड का विनाश एवं पूर्वदिशा और पिण्ड के विभाग से इन दोनों के संयोग का नाश. एवं सामान्य ज्ञान से अपेक्षाबुद्धि का नाश होता है। इस प्रकार एक ही समय समवायिकारण ( परत्वादि के आधारभूत पिण्डद्रव्य ), असमवायिकारण ( उक्त पिण्ड का पूर्वादि दिक्प्रदेशों के साथ संयोग ) और निमित्त. कारण ( अपेक्षाबुद्धि ) इन तीनों के विनाश से (भी ) परत्वादि गुणों का विनाश होता है।
बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान और प्रत्यय ( ये सभी ) शब्द अभिधावृत्ति के द्वारा एक ही अर्थ के बोधक हैं।
यह अनेक ( अनन्त) प्रकार की है, क्योंकि इसके विषय अनन्त हैं और यह प्रत्येक विषय में स्वतन्त्र रूप से ( भी) अवश्य ही सम्बन्ध है।
न्यायकन्दली बुद्धिजे परत्वापरत्वे इति समथिते । अथ केयं बुद्धिरित्याहबुद्धिरित्यादि। प्रधानस्य विकारो महदाख्यमन्तःकरणं चित्तापरपर्यायं बुद्धिः । बुद्धी
यह समर्थन कर चुके है कि परत्व और अपरत्व दोनों ही बुद्धि से उत्पन्न होते हैं । किन्तु 'यह बुद्धि कौन-सी वस्तु है ?' (इस स्वाभावाविक प्रश्न का उत्तर) 'बुद्धिः' इत्यादि पङक्ति से देते हैं।
सांख्याचार्यों का कहना है कि प्रकृति (प्रधान) का महत् नाम का विकाररूप अन्तःकरण ही 'बुद्धि' है, जिसे 'चित्त' भी कहते हैं । इस बुद्धि की वह विषयाकार की
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