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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
४२१ न्यायकन्दली हि यत्र विलक्षणसामग्री, तत्र कार्यमपि विलक्षणमेव, यथा प्रत्यभिज्ञानम् ।
__ संशयोऽप्यविद्या । सा चानिष्टा पुरुषस्येत्यधर्मकार्यत्वं तस्य दर्शितम् । अधर्माच्चेति। सामान्यं दृष्ट्वा यदेकं विशेषमनुस्मृत्य विशेषमनुस्मरति तदा सामान्यदर्शनस्य विनष्टत्वात् संशयहेतुत्वानुपपत्तिरिति
चेन्न, ' उभयविशेषविषयाभ्यां संस्काराभ्यां युगपत्प्रबुद्धाभ्यामुभयविशेषविषयकस्मरणजननात्, तत्काले च विनश्यदवस्थस्य सामान्यज्ञानस्य सम्भवात् ।
स च द्विविध इति भेदकथनम्। केन रूपेणेत्यत आह-अन्तबहिश्चेति। यः समानधर्मोपपत्तेरनेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यव्यवस्थातोऽनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च समानतान्त्रिकैः पञ्चविधः संशयो दर्शितः, स सर्वो द्वैविध्येनैव संगृहीतः ।
अन्तस्तावद् आदेशिकस्येति । आदेशिको ज्योतिवित्, तेनैकदा किञ्चिद् ग्रहसञ्चारादिनिमितमुपलभ्यादिष्टं किञ्चिदिष्टमनिष्टं वात्राभूद्वर्तते भविष्यति और प्रत्यय दोनों ही हो सकता है । जहाँ की सामग्री ( कारणसमूह ) विशेष रूप की होगी, वहाँ का कार्य भी विशेष प्रकार का ही होगा, जैसे कि 'प्रत्यभिज्ञा' ( अनुभवात्मक और स्मरणात्मक दोनों हैं ) ।
संशय भी अविद्या ही है, अयिद्या पुरुष का अनिष्ट करनेवाली है। इसीलिए कहा गया है कि 'संशय अधर्म से उत्पन्न होता है'। (प्र०) सामान्य ज्ञान के बाद एक विशेष धर्म का स्मरण कर अगर दूसरे विशेष धर्म का स्मरण होता है, तो फिर उस समय कथित सामान्य ज्ञान का ही विनाश हो जाएगा। अत: सामान्य दर्शन संशय का कारण नहीं हो सकता । (उ०) एक ही समय दोनों विशेष धर्मो के एक ही उद्बुद्ध संस्कार से दोनों विशेष धर्म विषयक एक ही ( समूहालम्बन ) स्मरण की उत्पत्ति हो सकती है, उस समय आगे क्षण में ही विनष्ट होनेवाले (विनश्यदवस्थ ) सामान्य धर्म के ज्ञान की सम्भावना है।
‘स च द्विविधः' इस वाक्य के द्वारा संशय के दो भेद कहे गये हैं। कौन से उसके दोनों प्रकार हैं ? इसी प्रश्न का उत्तर ‘स च द्विविधः' इत्यादि से दिया गया है। समानतन्त्र ( न्याय ) के आचार्यों ने जो (१) साधारण धर्म के ज्ञान से उत्पन्न (२) अमाधारण धर्म के ज्ञान से उत्पन्न (३) विप्रतिपत्ति वाक्य से उत्पन्न (४) उपलब्धि की अव्यवस्था से उत्पन्न एवं (५) अनुपलब्धि की अव्यवस्था से उत्पन्न इत्यादि संशय के जो पाँच भेद गिनाये गये हैं, वे सभी इन्हीं दो प्रकारों में अन्तर्भूत हो जाते हैं ।
'आदेशिकस्य' इत्यादि से कहा गया है कि कथित संशय 'अन्तःसंशय' का उदाहरण है। 'आदेशिक' शब्द का यहाँ 'ज्योतिषशास्त्रवेत्ता' अर्थ है। उन्होंने एक समय किसी पुरुष को उसके ग्रहसञ्चारादि निमित्त को देखकर 'आदेश' किया कि 'यहाँ
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