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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [ गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् सिद्धः । अण्वाकाशयोस्त्वाश्रयान्तराभावेऽप्यन्यतरस्य पृथग्गतिभत्वात् संयोगविभागौ सिद्धौ । तन्तुपटयोरनित्ययोराश्रयान्तराभाहै ( समवाय नहीं )। परमाणु और आकाश इन दोनों में से कोई भी पृथक् आश्रय में नहीं रहता, ( क्योंकि दोनों का कोई आश्रय ही नहीं है) फिर भी दोनों में से एक (परमाणु ) में स्वतन्त्र गति है, अतः आकाश
और परमाणु इन दोनों में संयोग की सिद्धि ( और संयोगसिद्धि के कारण ही ) विभाग की भी सिद्धि समझनी चाहिये। चूँकि अनित्य तन्तु और अनित्य
न्यायकन्दली इचान्यतरस्य शकुनेः पृथगाश्रयायित्वम् । यद्यप्यन्यतरस्य पृथग्गमनमप्यस्ति, तथापि तस्य पृथग्गमनस्य ग्रहणं तस्य नित्यविषयत्वेन व्याख्यानात् ।
अनित्यानामपि पृथग्गमनमेव युतसिद्धिः किं नोच्यते ? तदाह-त्वगिन्द्रियशरीरयोः पृथग्गमनं नास्ति, युतेष्वाश्रयेषु बम योऽस्तीति परस्परेण संयोगः सिद्धः। यदि त्वनित्यानामपि पृथग्गमनं युतसिद्धिरुच्यते, त्वगिन्द्रियशरीरयोः पृथग्गमनाभावादयुतसिद्धता स्थात् । ततश्च तयोः परस्परसंयोगो न प्राप्नोति, तस्य युतसिद्धयैव व्याप्तत्वात् । तस्मादनित्यानां न पृथग्गमनं युतसिद्धिरित्यर्थः । आश्रयाभावादेव पृथगाश्रयायित्वं नित्येषु नास्ति । तेषां च पृथग्गतिमत्त्वात परस्परसंयोगविभागौ सिद्धौ, तेनैषां पक्षगमनमेव युतसिद्धिरित्यभिप्रायेणाह-अण्वाकाशयोस्त्वाश्रयान्तराभावेऽप्यन्यतरस्य पृथग्गति
अर्थात समवाय ही अनित्यों की 'युतसिद्धि' है। बाज पक्षी और आकाश इन दोनों में से एक में बाज पक्षी में पृथक् ‘आश्रयायित्व' है । यद्यपि दोनों में से एक ( बाज पक्षी) में पृथक् गतिशीलता भी है, किन्तु उस पृथक् गमन का यहाँ ग्रहण नहीं है, क्योंकि नित्यों की युतसिद्धि के लिए उसका उपादान किया गया है ।
(प्र०) पृथक् गमन-शीलता को ही अनित्यों की भी युतसिद्धि का लक्षण क्यों नहीं मानते ? इसी प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि त्वगिन्द्रय और शरीर ये दोनों यद्यपि स्वतन्त्र रूप से गतिशील है, फिर भी युत आश्रयों में इन दोनों का समवाय है, अतः सिद्ध होता है कि दोनों में संयोग ही है ( अयुतसिद्धों में रहनेवाला समवाय नहीं )। अभिप्राय यह है कि अनित्यों की युतसिद्धि भी अगर 'पृथग् गमन' रूप ही कही जाय, तो त्वगिन्द्रिय और शरीर इन दानों में से किसी में भी पृथक गतिशीलता न रहने के कारण वे दोनों भी अयुतसिद्ध होंगे। इससे उन दोनों में संयोग असम्भव हो जाएगा, क्योंकि यह नियम है कि संयोग युतसिद्धों में ही होता है। अतः 'पृथग् गमनशीलत्व' अनित्यों की युतमिद्धि नहीं है। नित्य द्रव्यों का कोई आश्रय नहीं होता, अतः 'पृथगाश्रयायित्व' नित्यों की युतसिद्धि नहीं हो सकती।
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