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प्रकरणम् ] .
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली रविशेषात् । तस्मात् पूर्व द्रव्यस्य विनाशस्तदनु रूपस्य, आशुभावात् क्रमस्याग्रहणभिति युक्तमुत्पश्यामः ।
ये तु रूपद्रव्ययोस्तादात्म्यमिच्छन्तो द्रव्यकारणमेव रूपस्य कारणमाहुस्ते इदं प्रष्टव्याः --कि परमाणुरूपं रूपान्तरमारभते न वा ? आरभमाणमपि कि स्वात्मन्यारभते ? किं वा स्वाश्रये परमाणौ ? यदि नारभते ? यदि वा स्वात्मनि स्वाश्रये चारभते ? द्वयणुके रूपानुत्पत्तौ तत्पूर्वकं जगदरूपं स्यात् । अथ तद् द्वयणुके आरभते, अविद्यमानस्य स्वाश्रयत्वायोगादुत्पन्ने द्वयणुके पश्चात्तत्र रूपोत्पत्तिरित्यवश्यमभ्युपेतव्यम्, निराश्रयस्य कार्यस्यानुत्पादात् । तथा सति तादात्म्यं कुतः ? पूर्वापरकालभावात् । किञ्चावस्थित एव घटे रूपादयो वह्निसंयोगाद्विनश्यन्ति तथा सति जायन्ते चेति भवतामभ्युपगमः, यस्य चोत्पत्तौ यस्यानुत्पत्ति
रहनेवाले रूप के प्रति कारण न होते हुए भी अवयवों का संयोग अपने नाश से अवयवी में रहनेवाले रूप का नाश कर सकता है, तो फिर वही संयोग कपालादि अवयवों में रहनेवाले रूप का नाश क्यों नहीं कर सकता ? अतः हम यही युक्त समझते हैं कि पहिले द्रव्य का नाश होता है, उसके बाद तद्गत गुण का नाश होता है । द्रव्य के एवं तद्गत गुण के नाश का यह क्रम मालूम इसलिए नहीं पड़ता है कि दोनों के मध्य में अत्यन्त थोड़े समय का व्यवधान रहता है।
किसी सम्प्रदाय का मत है कि (प्र.) द्रव्य एवं गुण दोनों अभिन्न हैं, अतः जो द्रव्य का कारण है वही गुण का भी कारण है । (उ०) उनसे यह पूछना चाहिए कि पर-Tणुओं के रूप किसी दूसरे रूप को उत्पन्न करते हैं या नहीं ? अगर उत्पन्न करते हैं तो कहाँ ? अपने में ही ? या अपने आश्रय परमाणु में ? अगर यह मान लें कि परमाणु के रूप किसी भी दूसरे रूप को उत्पन्न नहीं करते हैं या फिर यही मान लें कि परमाणु का रूप अपने आश्रय में एवं अपने में भी रूप को उत्पन्न करते हैं हर हालत में द्वयणुक में रूप की उत्पत्ति न हो सकेगी, जिससे समूचे जगत् को ही रूप शून्य मानना पड़ेगा। अगर परमाणुओं के रूप से द्वयणुक में रूप की उत्पत्ति मानें तो फिर द्वयणुक में रूप की उत्पत्ति के पहिले द्वयणुक की उत्पत्ति माननी ही होगी। अतः यही कहना पड़ेगा कि द्वयणुक के उत्पन्न हो जाने पर पीछे उसमें रूपादि की उत्पत्ति होती है। क्योंकि बिना आश्रय के कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। अगर यह स्थिति है तो फिर रूप (गुण) और द्रव्य का अभेद कैसा ? क्योंकि द्रव्य पहिले उत्पन्न होता है और रूप पीछे । और भी बात है, वह्नि के संयोग से घटगत रूप का नाश घट के रहते ही हो जाता है, अतः यही मानना पड़ेगा कि अग्नि के संयोग से ही उसी घट में दूसरे रूप की उत्पत्ति होती है। अतः यही रीति माननी होगी कि जिसकी उत्पत्ति से
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