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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे विभाग
. प्रशस्तपादभाष्यम् नुत्पत्तावनुपभोग्यत्वप्रसङ्गः। न तु तदवयवकर्माकाशादिदेशाद् विभागं अपेक्षा होती है, अथवा स्वतन्त्ररूप से ही वह उक्त विभाग को उत्पन्न करती है। निष्क्रिय अवयवों में वह विभागों को उत्पन्न नहीं कर सकती, क्योंकि (उसके बाद) कारण के न रहने से उत्तर देश के साथ संयोग की
___ न्यायकन्दली मानो विभागः सक्रियस्यैव विभागं करोतीत्यत्र को हेतुरिति चेत् ? अत आहन, निष्क्रियस्य कारणाभावादिति । विभागाद विभागोत्पत्तौ कर्मापि निमित्तकारणम्, तस्याभावान्न निष्क्रियस्य विभागः । अत्रैवार्थे युक्त्यन्तरमाहउत्तरसंयोगानुत्पत्तावनुपभोग्यत्वप्रसङ्ग इति । क्रिया हि प्राधान्येन उत्तरसंयोगार्थमुपजाता, देशान्तरप्राप्तेन द्रव्येण कस्यचित् पुरुषार्थस्य सम्पादनात । तत्र यदि सक्रियस्यावयवस्य कार्यसंयुक्तादाकाशादिदेशाद् विभागो न भवति, तदा पूर्वसंयोगस्य प्रतिबन्धकस्यानिवृत्तेरुत्तरसंयोगानुत्पत्तौ सानुपभोग्या निष्प्रयोजना स्यात् । न चैतद्युक्तम् । तस्मात् सक्रियस्यैव विभाग इत्यर्थः । अवयव क्रिययोः अवयवविभागसमकालमाकाशादिविभागकर्तृत्वं नोपपद्यत इति। मा कार्कदियं युगपद्विभागद्वयम्, क्रमकरणे तु को विरोधो येन विभागअतः ( दूसरे ) अवयव देश से ( उस समय तक ) विभाग नहीं हो सकता। इसीलिए कहा गया है कि 'काल' ( काल और अवयव ) अथवा स्वतन्त्र रूप से (केवल) अवयव को अपेक्षा रखता है। इसमें क्या कारण है कि कारणीभूत दोनों अवयवों में रहनेवाला विभाग, क्रिया से युक्त द्रव्य के ही विभाग को उत्पन्न करता है ? इस प्रश्न के समाधान के लिए ही 'न निष्क्रियस्य कारणाभावात्' यह बाक्य लिखा गया है। विभाग से जो विभाग की उत्पत्ति होती है, उसमें क्रिया भी निमित्तकारण है । क्रिया के न रहने से ही निष्क्रिय द्रव्य में विभाग नहीं होता। इसीमें दूसरी युक्ति 'उत्तरसंयोगानुसत्तावनुपभोग्यत्वप्रसङ्गः' इस वाक्य के द्वारा दिखायी गयी है। उत्तर देश के साथ संयोग ही क्रिया की उत्पत्ति का मुख्य प्रयोजन है, क्योंकि दूसरे ( उत्तर ) देश में प्राप्त द्रव्य के द्वारा ही वह पुरुष के किसी प्रयोजन का सम्पादन करतो है। अभिप्राय यह है कि अगर क्रिया के द्वारा उससे युक्त अवयवरूप द्रव्य का कार्य (अवयवी ) द्रव्य से संयुक्त आकाशादि देशों से विभाग उत्पन्न न हो, एवं (अवयवी के) प्रतिबन्धक पहिले (दोनों अवयवों के) संयोग का विनाश भी न हो तो फिर क्रिया 'अनुपभोग्या' अर्थात् प्रयोजन से रहित ( व्यर्थ) हो जाएगी। किन्तु सो उचित नहीं है, अतः सक्रिय द्रव्य का ही विभाग होता है। अर्थात् दोनों अवयवों की दोनों क्रियाओं से जिस समय दोनों अवयवों का विभाग उत्पन्न होगा, उसी समय क्रियाओं से अवयवों के आकाशादि देशों के साथ विभाग की उत्पत्ति उचित नहीं है। (प्र०) अवयवों की वे दोनों क्रियाये
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