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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे विभाग
प्रशस्तपादभाष्यम् ऽवयवकर्मावयवान्तरादेव विभागमारभते, ततो विभागाच्च द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः। तस्मिन् विनष्टे कारणाभावात् कार्याभाव इत्यवयविदूसरे अवयव से विभाग को उत्पन्न नहीं करती, अत: अवयव में रहनेवाली क्रिया उसमें दूसरे अवयव से ही विभाग को उत्पन्न करती है। इसके बाद (अवयवी) द्रव्य के उत्पादक संयोग का नाश होता है। उसके विनष्ट हो जानेपर (असमवायि ) कारण के अभाव से (अवयवी द्रव्य
न्यायकन्दली लेख्यत्वयोः, सत्यपि पार्थिवत्वे काष्ठादिषु लोहलेख्यत्वात् । न तु व्योमविभागकर्तृत्वस्य विशिष्ट विभागानुत्पादकत्वस्य च व्यभिचारो दृश्यते। अदश्यमानोऽपि कदाचिदयं भविष्यतीत्याशङ्कयेत यद्यनयोः शिष्याचार्ययोरिवोपाधिकृतः सहभावः प्रतीयेत । न चैवमप्यस्ति, उपाधीनामनुपलम्भात् । यद्यप्रतीतव्यभिचारो निरुपाधिकः सहभावो न व्याप्तिहेतुरित्यग्निधूमयोरपि व्याप्तिर्न स्यादित्युच्छिन्नदानी जगत्यनुमानवार्ता।
यद्यवयवकर्मणावयवान्तराद् विभागः क्रियते नाकाशादिदेशात, ततः किं सिद्धम् ? तत्राह-विभागाच्च द्रव्यारम्भकसंयोगविनाशः । आकाशरहते हैं, उनमें परस्पर व्याप्ति सम्बन्ध नहीं है। जैसे कि काष्ठादि ( रूप एक आश्रय ) में पार्थिवत्व और लौहलेख्यत्व (लोहे से लिखने पर चिह्न पड़ जाना) दोनों के रहते हुए भी वज्रादि पत्थरों में (पार्थिवत्व के रहते हुए भी ) लौहलेख्यत्व के न रहने के कारण, उन दोनों धर्मों के प्रसङ्ग में यह कहा जाता है कि पार्थिवत्व और लौहलेख्यत्व दोनों धर्म एक आश्रय में केवल रहते हैं, किन्तु उन दोनों में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं है। किन्तु आकाशविभाग का कर्तृत्व तथा द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का अनुत्पादकत्व इन दोनों में से कोई एक को छोड़कर कहीं नहीं देखा जाता है । व्यभिचार के उपलब्ध न होने पर भी उक्त दोनों धर्मों में इस प्रकार के व्यभिचार की शङ्का हो सकती थी कि कदाचित् ये दोनों भी व्यभिचरित हों', अगर शिष्य और आचार्य के सम्बन्ध की तरह उनमें भी उपाधिमूलकत्व की उपलब्धि होती। किन्तु यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रकृत में कोई उपाधि भी उपलब्ध नहीं है, अगर उपाधि से रहित जिस सामानाधिकरण्य में व्यभिचार उपलब्ध न हो, वह भी अगर व्याप्ति का प्रयोजक न हो तो फिर वह्नि और धूम में भी व्याप्ति नहीं होगी। इस प्रकार संसार से अनुमान की बात ही उठ जाएगी।
अगर अवयव की क्रिया से दूसरे अवयव से ही उसका विभाग उत्पन्न हो, आकाशादि देशों से नहीं, तो फिर इससे क्या सिद्ध होता है ? इसी प्रश्न के उत्तर में यह वाक्य लिखा गया है कि विभागाच्च पूर्व संयोगनाशः। अभिप्राय यह है कि
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