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३६७
प्रकरणम् ]
प्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली दाकाशादिदेशाद् विभागं करोति । यदा चाकाशादिदेशात, न तदावयवान्तरादिति स्थितिनियमः । अतोऽवयवकर्मावययान्तरादेव विभागमारभते। यत आकाशविभागकारणं कर्म अवयवान्तराद् विभागं न करोतीति नियमः, अतोऽवयवान्तरविभागारम्भकं कर्म अवयवान्तरादेव विभागं करोति, नाकाशादिदेशात् ।
अयमभिसन्धिः-आकाशविभागकर्तृत्वं कर्मणो द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानारम्भक त्वेन व्याप्तम्, द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानारम्भकत्व. विरुद्धं च द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागोत्पादकत्वम् । अतो यत्रेदमुपलभ्यते तत्र द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानुत्पादकत्वे निवर्तमाने तद्व्याप्तमाकाशविभागकर्तृत्वमपि निवर्तते । यथा वह्निव्यावृत्तौ धूमव्यावृत्तिः ।
आकाशविभागकर्तृत्वस्य द्रव्यारम्भकसंयोगविरोधिविभागानारम्भकत्वस्य च सहभावमात्रं न व्याप्तिरिति चेत् ? न, व्यभिचारानुपलब्धः। ययोः क्वचिद्वयभिचारो दृश्यते तयोः सहभावमात्रम्, यथा वजे पार्थिवत्वलोह
साथ सम्बद्ध आकाशादि देशों के साथ विभाग को उत्पन्न नहीं करती, अतः अवयव को क्रिया दूसरे अवयव से ( अपने ) विभाग को ही उत्पन्न करती है। चूंकि यह नियम है कि जिस कारण से आकाश के साथ अवयवों का विभाग उत्पन्न होगा उस कारण से एक अवयव के दूसरे अवयव का विभाग उत्पन्न नहीं होगा, अत: एक अवयव में रहनेवाले जिप विभाग की उत्पत्ति जिस क्रिया से होगी, वह क्रिया ( एक अवयव में) दूसरे अवयव से विभाग को ही उत्पादिका होगी, आकाशादि देशों के साथ विभाग की नहीं।
___अभिप्राय यह है कि जिस क्रिया में आकाशविभाग का कर्तृत्व है, उसमें द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का कर्तृत्व नहीं है' यह अव्यभिचरित नियम है। सुतराम् द्रव्य के उत्पादक संयोग ( अवयवद्वयसंयोग ) के विरोधी विभाग का अनुत्पादकत्व, एवं द्रव्य के अनुत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का उत्पादकत्व, ये दोनों परस्पर विरोधी धर्म हैं। अतः जहाँ द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का उत्पादकत्व उपलब्ध होता है, वहाँ द्रव्य के आरम्भक संयोग के विरोधी विभाग का अनारम्भकत्व ( उससे स्वयं ) दूर हटते हुए अपने से व्याप्त आकाश विभागकर्तृत्व को भी दूर हटा देता है। जैसे कि ( जलादि में ) वह्नि के प्रतिक्षिप्त होने के कारण धूम ( स्वयं ही जल से हट जाता है )।
(प्र.) आकाश विभाग का कर्तृत्व, एवं द्रव्य के उत्पादक संयोग के विरोधी विभाग का अनारम्भक त्व, ये दोनों एक आभय में केवल रहते भर हैं, (इसका यह अर्थ नहीं कि) दोनों में परस्पर व्याप्ति सम्बन्ध भी है । (उ०) (यह कहना ठीक) नहीं हैं, क्योंकि उक्त दोनों धर्मों में कहीं व्यभिचार उपलब्ध नहीं है, (समानाधिकरण ) जिन दो धर्मों में से एक दूसरे के बिना भी उपलब्ध होता हैं, उन दोनों धर्मों के लिए कह सकते हैं कि वे केवल एक आभय में
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