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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
३६५
प्रशस्तपादभाष्यम्
संयोगवत् । विभागजस्तु द्विविधः-कारणविभागात, कारणाकारणविभागाच्च । तत्र कारणविभागात् तावत् कार्याविष्टे कारणे कर्मोत्पन्न ( उक्त नाम के दोनों ) संयोगों की तरह हैं। ( किन्तु ) विभागज विभाग दो प्रकार का है-(१) केवल कारणों के विभाग से उत्पन्न होनेवाला, एवं (२) कारण और अकारण इन दोनों के विभाग से उत्पन्न होनेवाला।
न्यायकन्दली प्राप्तिविरोधी गुणविशेषः, स विभाग इति वाक्यार्थः । कि प्राप्तेः पूर्वावस्थानमात्रम् ? किं वा विभागं प्रति हेतुत्वमप्यस्ति ? अवस्थितिमात्रमिति ब्रमहे, संयोगस्य विभागहेतुत्वेऽवयवसंयोगानन्तरमेव तद्विभागस्योत्पत्तौ द्रव्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । कर्मसहकारी संयोगः कारणमिति चेत् ? अन्वयव्यतिरेकावधृतसामर्थ्य कर्मैव कारणमस्तु, न संयोगः, तस्मिन् सत्यप्यभावात् ! प्रध्वंसोत्पत्ताविव भावस्य । विभागोत्पत्तौ संयोगस्य पूर्वकालतानियमः, विभागस्य तद्विरोधिस्वभावत्वात् ।
स च त्रिविध इति भेदकथनम् । अत्रापि चशब्दोऽवधारणे, त्रिविध एव । अन्यतरकर्मज उभयकर्मजो विभागजश्च विभाग इति । गुण क विरोधी विभाग नाम के गुण का ही बोधक है ( संयोग के अभाव का नहीं)। 'प्राप्ति' (संयोग ) के रहने पर जो 'अप्राप्ति' अर्थात् प्राप्ति का विरोधी गुणविशेष वही 'विभाग' है। (प्र. ) विभाग के उत्पन्न होने से पहिले संयोग (प्राप्ति ) केवल रहता है, या वह उसका उत्पादक भी है ? ( उ०) हम तो कहते हैं कि विभाग की उत्पत्ति के पूर्व (नियमतः ) संयोग केवल विद्यमान रहता है, ( यह विभाग का कारण नहीं है ), क्योंकि संयोग अगर विभाग का कारण हो, तो फिर द्रव्यों की उत्पत्ति ही रुक जाएगी क्योंकि अवयवों में संयोग के होने के बाद उस संयोग से अवयवों के विभाग उत्पन्न होंगे । अगर कहें कि (प्र०) (केवल संयोग ही विभाग का कारण नहीं है क्रिया भी उसकी सहायिका हैं ? ( उ०) तो फिर अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा जिस क्रिया में विभाग का सामर्थ्य निश्चित है, वह क्रिया ही विभाग का कारण है, संयोग नहीं। क्योंकि संयोग के रहते हुए भी बिना क्रिया के विभाग की उत्पत्ति नहीं होती है। अतः जिस प्रकार ध्वंस की उत्पत्ति से पहिले ( उसके प्रतियोगी) भाव की नियमतः सत्ता (ही) रहती है, (एवं वह ध्वंस का कारण नहीं होता), उसी प्रकार संयोग भी विभाग से पहिले नियमतः केवल रहता है, वह उसका उत्पादक नहीं है । क्योंकि विभाग स्वभावतः संयोग का विरोधी है।
'स च त्रिविधः' इस वाक्य के द्वारा विभाग के भेद कहे गये हैं। यहाँ भी 'च' शब्द का अवधारण ही अर्थ है, ( तदनुसार इस वाक्य का यह अर्थ है कि) विभाग के ये तीन ही प्रकार हैं-(१) अन्यतरकर्मज, (२) उभयकर्मज और (३) विभागज ।
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