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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे पृथक्त्व
न्यायकन्दली एवं संख्यया सह पृथक्त्वस्य साधयं प्रतिपाद्य वैधयं प्रतिपादयतिएतावास्त्विति। संख्यायाः सकाशात् पृथक्त्वस्यतावान् भेदो यथा संख्यात्वपरसामान्यापेक्षयैकत्वद्वित्वादिकमपरसामान्यमस्ति, तथा पृथक्त्वत्वपरसामान्यापेक्षयैकपृथक्त्वत्वादिकमपरसामान्यं नास्तीति । कथं तानेकेष्वेकपृथक्त्वादिष्ववान्तरप्रत्ययविशेषस्तत्राह-संख्यया तु विशिष्यत इति । अयमेकः पृथग् द्वाविमौ पृथगित्येकत्वादिसंख्याविशिष्टो व्यवहारः पृथक्त्वे दृश्यते । तत्रैकत्र द्रव्ये वर्तमानं पृथक्त्वमेकार्थसमवेतयैकत्वसंख्यया विशिष्यते, तद्विशेषश्चावान्तरव्यवहारविशेषः, अनुवृत्तिप्रत्ययश्च पृथक्त्वसामान्यकृत एवेत्यभिप्रायः। एतेन परमाणुपरिमाणेष्वपि परमाणुत्वं सामान्य प्रत्याख्येयम्, परमशब्दविशेषितादेवाणुत्वसामान्याद् व्यवहारानुगमोपपत्तेः। अथ कस्मात् सर्वद्रव्यानुगतमेकमेव पृथक्त्वमेकत्वादिसंख्याविशेषणभेदात् प्रत्ययभेदहेतुरिति नेष्यते ? नेष्यते,
इस प्रकार संख्या के साथ पृथक्त्व का साधर्म्य दिखला कर अब 'एतावांस्तु' इत्यादि ग्रन्थ से संख्या से इसमें जो असाधारण्य है उसका प्रतिपादन करते हैं। अर्थात् संख्या से पृथक्त्व में इतना ही अन्तर है कि संख्या में संख्यात्व रूप परसामान्य के अतिरिक्त एकत्वत्व द्वित्वत्वादि और अपरजातियाँ भी हैं, किन्तु पृथक्त्व में पृथक्त्वत्व रूप परसामान्य को छोड़कर एकपृथक्त्वत्वादि कोई अपर सामान्य नहीं हैं । (प्र.) तो फिर द्विपृथक्त्वादि विभिन्न पृथक्त्वविषयक प्रतीतियों में अन्तर क्यों कर होता है ? 'संख्यया तु विशिष्यते' इत्यादि से इसी प्रश्न का समाधान किया गया है। अभिप्नाय यह है कि 'अयमेकः पृथक्, द्वाविमौ पृथक्' इत्यादि स्थलो में पृथक्त्व का व्यवहार संख्या के साथ ही देखा जाता है। इनमें एक ही द्रव्य में रहनेवाला पृथक्त्व अपने आश्रय रूप द्रव्य में समवायसम्बन्ध से रहनेवाली एकत्वसंख्या के द्वारा ही और पृथक्त्वों से अलग रूप में समझा जाता है । उस संख्या रूप विशेष से ही एकपृथक्त्व विषयक प्रतीति में द्विपृथक्त्वादि विषयक प्रतीतियों से अन्तर होता है । विभिन्न पृथक्त्व विषयक सभी प्रतीतियों में एकाकारत्व की प्रतीति (अनुवृत्तिप्रत्यय) तो पृथक्त्वत्व सामान्य से ही होता है। इसी रीति से परमाणुओं में रहनेवाले परिमाण में परमाणुत्व जाति का खण्डन करना चाहिए, क्योंकि ('परम' शब्द से युक्त सभी अणुओं में रहनेवाले अणुत्व रूप पर) सामान्य से ही सभी परमाणुओं में परमाणुत्व के व्यवहार का अनुगम होगा। (प्र.) इस प्रकार सभी द्रव्यों में रहनेवाला एक ही पृथक्त्व क्यों नहीं मानते ? उसीसे संख्या रूप विशेषण के बल से ( एक पृथक्त्व, द्विपृथक्त्वादि ) विशेष प्रकार के व्यवहारों की उपपत्ति होगी, ( उ० ) इस लिए नहीं मानते हैं, कि क्रमशः उत्पन्न होनेवाले द्रव्यों में सामान्य की तरह (उत्पत्तिक्षण में ही)
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