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प्रकरणम् ]
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भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
अथ कथंलक्षणः ? कतिविधश्चेति । अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः । स च त्रिविधः -- अन्यतरकर्मजः, उभयकर्मजः, संयोगजश्च । ( प्र ० ) उसका स्वरूप (लक्षण) क्या है ? एवं वह कितने प्रकार का है ? ( परस्पर न मिले हुए दो द्रव्यों की प्राप्ति) मिलन ( ही ) संयोग है । वह ( १ ) अन्यतरकर्मज, (२) उभयकर्मज और ( २ ) संयोगज भेद से तीन प्रकार का है। इसमें ( १ )
अप्राप्त
न्यायकन्दली
(उ० )
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सहिता सामग्री कारणम्, कदाचिद् द्वितीयमन्त्रादिसहिता कारणमित्यस्यां कल्पनायां को विरोध: ? यदनुरोधाददृष्टमाश्रीयते । दृष्टो ह्येकरूपस्यापि कार्यस्य सामग्रीभेदः, यथा दारुनिर्मथनप्रभवो वह्निः सूर्यकान्तप्रभवश्चेति तर्कसिद्धान्तरहस्यम् । मीमांसासिद्धान्तरहस्यं तत्त्वप्रबोधे कथितमस्माभिः ।
संयोगः संयुक्तप्रत्ययनिमित्तमित्यवगतं तावत् किन्त्वस्य स्वरूपं भेदश्च न ज्ञायते तदर्थं परिपृच्छति - अथ कथंलक्षणः कतिविधश्चेति । अथेति प्रश्नोपक्षेपे कथं शब्द: किंशब्दार्थे, यथा को धर्मः कथंलक्षण इति । लक्षणशब्दश्च स्वरूपवचन इति किस्वरूपः संयोगः ? कतिविधश्चेति कतिप्रकार इत्यर्थः । लक्षणं कथयति - अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः | पूर्वमप्राप्तयोर्द्रव्ययोः पश्चाद्या
प्रतिबन्धकीभूत मन्त्रादि सहित कारणों का समूह ही कार्य को उत्पन्न करता है, एवं कभी द्वितीय ( प्रतिबन्धक मन्त्रादि के विरोधी ) मन्त्रादि सहित कारणों का समूह हो उसका कारण होता है, इन दोनों कल्पनाओं में कौन सा विरोध है कि जिसके लिए आप ( मीमांसक ) अदृष्ट ( शक्ति का अवलम्बन करते हैं । एक तरह के कार्यों की उत्पत्ति अनेक प्रकार के कारणों से देखी जाती है । जैसे कि काठ की रगड़ से भी अग्नि की उत्पत्ति होती है, एवं सूर्यकान्तमणि से भी । ( शक्ति के विषय में ) यही तार्किकों के सिद्धान्त का रहस्य है । ( शक्ति पदार्थ की सत्ता के प्रसङ्ग में ) मीमांसकों के अभिमत सिद्धान्त के रहस्य का निरूपण मैंने 'तत्त्वप्रबोध' नाम के ग्रन्थ में किया है ।
यह तो समझा कि 'ये परस्पर संयुक्त हैं' इस आकार की प्रतीति का कारण ही संयोग है । किन्तु यह तो नहीं समझ सके कि इसका स्वरूप क्या है ? इसके कितने भेद हैं ? यही समझाने के लिए 'अथ कथं लक्षणः ? कतिविधश्च ?' इत्यादि प्रश्न करते हैं । यहाँ 'अर्थ' शब्द का अर्थ है 'प्रश्न का आरम्भ करना' एवं 'कथम' शब्द 'किम्' शब्द के स्थान में आया है। 'को धर्मः ? कथं लक्षणः ?" इत्यादि
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जैसे कि ( शाबरभाष्य - अ०१ - पा० - १ - सू० - १ के ) स्थलों में ( ये शब्द ) प्रयुक्त हुए हैं । प्रकृत में