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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोग
न्यायकन्दली दर्शनादभावकार्यत्वं नास्तीति चेत् ? न, नित्यानां कर्मणामकरणात् प्रत्यवायस्योत्पादात्, अन्यथा नित्याकरणे प्रायश्चित्तानुष्ठानं न स्याद्वैयर्थ्यात् । नित्यानामकरणेऽन्यकरणात् प्रत्यवायो न तु नित्याकरणस्य करणप्रागभावस्य हेतुत्वमिति चेत् ? नित्याकरणस्य तद्भावभावित्वनियतस्य सहायत्वेन व्यापारात् । ननु यदि प्रतिबन्धकस्य प्रयोगे तदभावो निवृत्त इति दाहस्यानुत्पत्तिस्तदा प्रतिबन्धकप्रतिबन्धकेऽपि दाहो न स्यात, तत्कारणस्य प्रागभावस्य निवृत्तत्वात् । दृश्यते च प्रतिबन्धकस्यापरेण मन्त्रादिना प्रतिबन्धे सति दाहः, तेन नाभावः कारणमित्यवस्थितेयं शक्तिः कारणम् । सा च प्राक्तनेन प्रतिबद्धा द्वितीयेनोत्तम्भितेति कल्पना अवकाशं लभते । तदप्यपेशलम्,
सम्भवत्यदृष्टकल्पनानवकाशात् । कदाचित् प्रतिबन्धकमन्त्राद्यभाव
विघटन से नहीं होती है । (प्र.) यह नियमित रूप से देखा जाता है कि भाव रूप कारण से ही भाव रूप काय की उत्पत्ति होती है (अभाव रूप कारण से नहीं), अतः अभाव को दाह रूप भाव कार्य का कारण मानना सम्भव नहीं है। (उ०) (भाव रूप कारण से ही भाव कार्य की उत्पत्ति ) नहीं होती है, क्योंकि नित्य कर्मों के न करने से भी पापों की उत्पत्ति होती है। अगर ऐसी बात न हो तो फिर नित्य कर्म के न करने से प्रायश्चित्त का अनुष्ठान व्यर्थ हो जाएगा। (प्र०) नित्य कर्म के अनुष्ठान के समय उसे न कर दूसरा जो कर्म किया जाता है, उसी से पाप की उत्पत्ति नहीं होती है । (वहाँ) नित्य कर्म के अनुष्ठान के प्रागभाव से पाप की उत्पत्ति नहीं होती है । ( उ०) जिस समय नित्य कर्म का अनुष्ठान नहीं होगा, उस समय अवश्य ही किसी दूसरे कर्म का अनुष्ठान होगा, अतः नियत रूप से पहिले रहने के कारण दूसरे कर्म का अनुष्ठान उस पाप का केवल सहायक व्यापार ही हो सकता है, कारण नहीं । (प्र०) अगर प्रतिबन्धकीभूत मन्त्रादि के प्रयोग से उक्त मन्त्रादि के प्रागभाव नष्ट हो जाते हैं और इसीलिए मन्त्र के प्रयोग के स्थलों में वह्नि से दाह नहीं होता है, तो फिर दाह के प्रतिबन्धक मन्त्र के प्रभाब के प्रतिरोधक दूसरे मन्त्र के रहने पर भी दाह की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि उसका कारण प्रतिबन्धक का प्रागभाव तो नष्ट हो गया है । किन्तु दाहादि के प्रतिबन्धक मन्त्र के प्रयोग के रहने पर भी उसके विरोधी मन्त्र के प्रयोग से दाह की उत्पत्ति देखी जाती है, अतः मन्त्र का प्रागभाव दाह का कारण नहीं हो सकता । तस्मात् वह्नि प्रभृति कारणों में दाहादि कार्यों के उत्पादन करने की ( एक अतिरिक्त) शक्ति अवश्य है। इससे यह कल्पना भी सुलभ हो जाती है कि पहिले (प्रतिरोधक ) मन्त्र के प्रयोग से वह शक्ति प्रतिरुद्ध हो जाती है, और दूसरे (प्रतिबन्धक के विरोधी) मन्त्र के प्रयोग से वह फिर से कार्योंन्मुख हो जाती है । ( उ० ) दृष्ट कारणों से ही कार्यों की उत्पत्ति अच्छी प्रकार से हो सकती है, ऐसी स्थिति में अदृष्ट (शक्तिरूप) कारण की कल्पना व्यर्थ है। कभी
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