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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
तन्त्वारम्भके अंशौ कर्मोत्पद्यते, तेन कर्मणा अंश्वन्तराद् विभागः क्रियते, विभागाच्च तत्वारम्भकसंयोगविनाशः, संयोगविनाशात् तन्तुविनाशः, तद्विनाशे तदाश्रितस्य तन्त्वन्तरसंयोगस्य विनाश इति ॥
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संयुक्त होने पर उन दोनों तन्तुओं में से एक तन्तु के उत्पादक अंशु ( तन्तु के अवयव ) में क्रिया उत्पन्न होती है, एवं उसी क्रिया से उस अंशु दूसरे अंशु से विभाग उत्पन्न होता है, इस विभाग से तन्तु के उत्पादक उन दोनों अंशुओं के संयोग का विनाश होता है, संयोग के इस विनाश से उस तन्तु का नाश हो जाता है, तब उस तन्तु में रहनेवाल दूसरे ( उक्त पट के अनारम्भक ) तन्तु के संयोग का भी नाश होता है ।
क्वचिदाश्रयविनाशादपि संयोगस्य विनाशः ।
न्यायकन्दली
परिहारेण पृथगाश्रयाश्रयित्वं युतसिद्धिरनित्यानाम् । इयं द्विधाप्याकाशादिषु नास्तीत्यभिप्रायः | विनाशस्तु सर्वस्य संयोगस्य एकार्थसमवेताद् विभागात् । अन्यतरकर्मजस्योभयकर्मजस्य संयोगजस्यैकार्थसमवेताद् विभागात् । ययोर्द्रव्ययोः संयोगो वर्तते, तयोः परस्परं विभागादस्य विनाशः । यद्यपि विभागकाले संयोगो विद्यत एव तथापि तयोः सहभावो न लक्ष्यते, विनाशस्याशुभावाद् विभागेन वा तदुपलम्भप्रतिबन्धात् ।
संयोगे सत्यन्यतरतन्त्वारम्भकेंऽशौ कर्मोत्पद्यते
[ गुणे संयोग
कथम् ? तन्त्वोः कुतश्चित् कारणात् । तेन
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दूसरी जगह आभित हों या कोई दूसरी वस्तु ही इन दोनों में, यां इन दोनों में से एक में भी आश्रित हो अभिप्राय यह है कि इन दोनों प्रकार की युतसिद्धियों में आकाशकालादि विभु द्रव्यों में एक भी नहीं है । ( संयोग के आश्रय रूप ) एक अर्थ ( द्रव्य) में रहनेवाले विभाग से हो सभी संयोगों का नाश होता है, अर्थात् अन्यतरकर्मज, उभयकर्मज और संयोगज इन तीनों प्रकार के संयोगों का एक अर्थ में समवाय सम्बन्ध से रहनेवाले विभाग से, अर्थात् संयोग के आश्रयीभूत सम्बन्ध से रहने वाले उनके परस्पर विभाग से ही उन (सभी है ) । यद्यपि विभाग के उत्पत्तिक्षण में संयोग रहता ही है, फिर भी दोनों में सामानाधिकरण्य (एक अधिकरण में रहने की ) प्रतीति नहीं होती है, क्योंकि अतिशीघ्रता से ( विभाग की उत्पत्ति के अगले क्षण में हो ) संयोग का विनाश हो जाता है । अथवा विभाग के द्वारा ही दोनों के सामानाधिकरण्य की प्रतीति प्रतिरुद्ध हो जाती है ।
दो द्रव्यों में समवाय संयोगों का नाश होता
कहीं आश्रय के विनाश से
( किस स्थिति में कहीं आश्रय के
भी संयोग का नाश होता है । ( प्र०) किस प्रकार ? नाश से संयोग का नाश होता है ?) (उ०) जहाँ