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न्यायकन्दलीसंवलितप्रधास्तपादभाष्यम [ गुणे संयोग
न्यायकन्दली नन्वेवं बालशरीरावयवा अविनष्टे एव तस्मिन्नाहारावयवसहिताः शरीरान्तरमारभेरन् ? आरभन्ताम्? यदि पट इव खण्डावयविनां वृद्धशरीरे तिष्ठति विनाशिते वा पूर्वशरीराणामुपलम्भः सम्भवति ? अथ नास्ति, न तत्रायं विधिः, यथादर्शनं व्यवस्थापनात् । एतेनारभ्यारम्भकवादपक्षे परमाण्ववस्थितस्य जगतो ग्रहणं न स्यादित्यपि प्रत्युक्तम्, परमाणूनां त्र्यणुकादिकारणत्वाभावस्य पृथिव्यधिकारे दर्शितत्वात । अथवा यदि परमाणवो द्वयणुकमारभ्य तत्सहितास्त्र्यणुकमारभन्ते, त्र्यणुकसहितास्तु द्रव्यान्तरम्, तथापि कुतो विश्वस्याग्रहणम् ? महत्त्वानेकद्रव्यवत्त्वरूपविशेषाणामुपलब्धिकारणानां सम्भवात् । अथ सत्स्वपि तेष्वतीन्द्रियाश्रयत्वादतीन्द्रियत्वमेव, एवं द्वयणुकारब्धस्य त्र्यणुकस्यातीन्द्रियत्वे तत्पूर्वकस्य विश्वस्यातीन्द्रियत्वं त्वत्पक्षेऽपि दुनिवारम् । तस्मान्नेयमत्रानुपपत्तिः । परमाणूनां त्र्यणुकानारम्भकत्वे पृथिव्यधिकारोक्तव युक्तिरनुगन्तव्या। कपड़े के टुकड़ों की उपलब्धि होती है। अगर उस महापट के बिलकुल नष्ट होने पर ही उन ( उपलब्ध छोटे बड़े ) पटों की उत्पत्ति हो, तो फिर कथित उपलब्धि की उपपत्ति नहीं हो सकेगी।
(प्र०) तो फिर बालक के शरीर के अवयव भी उसी शरीर में बिना उसके विनष्ट हुए हा भोजन-द्रव्यों के अवयवों की सहायता से दूसरे शरीर को उत्पन्न कर सकते हैं ? (उ०) कर ही सकते हैं, अगर वृद्ध शरीर के नष्ट होने पर या रहते हुए ही पट की तरह उसके खण्ड अवयवियों को भी उपलब्धि सम्भव हो। अगर यहाँ खण्ड अवयवियों की उपलब्धि नहीं होती है तो फिर दूसरे शरीर की उत्पत्ति का वह प्रकार भी यहां नहीं है। जहां जैसी स्थिति रहती है वैसी व्यवस्था की जाती है। उक्त निरूपण से किसी सम्प्रदाय की यह आपत्ति भी मिट जाती है कि 'आरभ्य-आरम्भकवाद' पक्ष में परमाणुओं में विद्यमान संसार की उपलब्धि नहीं होगी। क्योंकि परमाणुओं में व्यणुकादि द्रव्यों की कारणता किस प्रकार से है ? सो पृथिवी निरूपण में दिखला चुक हैं । अथवा यह मान भी लें कि यदि परमाणु ही द्वथणुकों को उत्पन्न कर उन्हीं द्वथणुकों से मिलकर यसरेणु को भी उत्पन्न करते हैं, एवं व्यसरेणु से मिलकर और द्रव्यों को भी, तब भी विश्व का अप्रत्यक्ष क्यों होगा ? चूकि प्रत्यक्ष के जितने भी महत्त्व अनेकद्रव्यवत्त्वादि विशेष कारण हैं, सभी विद्यमान हैं। अगर विशेष कारणों के रहते हुए भी केवल अतीन्द्रियों (परमाणुओं) में आधित होने के कारण ही द्वथणुक अतीन्द्रिय हो तो फिर अतीन्द्रिय द्वयणुकों से आरब्ध होने के कारण व्यसरेणु भी अतीन्द्रिय होंगे, और व्यसरेणु से आरब्ध सम्पूर्ण विश्व में ही अतीन्द्रिय में आश्रित होने के कारण अतीन्द्रियत्व को आपत्ति तुम्हारे पक्ष में भी समानरूप से होगी। अतः यह दोष यहाँ नहीं है। परमाणु साक्षात् ही त्र्यस रेणुओं का उत्पादन नहीं करते' इस प्रसङ्ग में पृथिवी निरूपण में कही गयी युक्तियों का ही अनुसन्धान करना चाहिए । (देखिये पृ०८० पं. ३)
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