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न्यायकन्दली संवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
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[ गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम्
,
तत्रान्यतरकर्मजः क्रियावता निष्क्रियस्य यथा स्थाणोः श्येनेन, । उभय कर्मजो विरुद्ध दिक्रिययोः संनिपातः,
विभूनां च मूर्त्तेः
क्रिया से युक्त द्रव्य के साथ निष्क्रिय द्रव्य का संयोग अन्यतरकर्मज संयोग है, जैसे कि सूखे वृक्ष के साथ बाज पक्षी का संयोग एवं विभु द्रव्यों के साथ मूर्त्त द्रव्यों का संयोग । (२) दो विरुद्ध दिशाओं में रहनेवाले क्रियायुक्त दो द्रव्यों का संयोग उभयकर्मज है । जैसे ( कि लड़ते हुए) दो पहलवानों का
न्यायकन्दली
प्राप्तिः परस्परसंश्लेषः स संयोगः । अप्राप्तयोरिति समवायव्यवच्छेदार्थम् । इदानीं तस्य भेदं प्रतिपादयति- स च त्रिविध इति ।
च शब्दोऽवधारणे - संयोगस्त्रिविध एव । त्रैविध्यमेव दर्शयति - अन्य - तरकर्मज इत्यादिना । द्वयोः संयोगिनोर्मध्ये यदन्यतरद् द्रव्यं तत्र यत्कर्म तस्माज्जातोऽन्यतरकर्मजः । उभयोर्द्रव्ययोः कर्मणी उभयकर्मणी ताभ्यां जात उभयकर्मजः । संयोगादपि संयोगो जायते । तत्रान्यतरकर्मजः । तत्र तेषां त्रयाणां मध्ये क्रियावता द्रव्येण निष्क्रियस्य द्रव्यस्य संयोगोऽन्यतरकर्मजः । अस्योदाहरणम्- - यथा स्थाणोः श्येनेन विभूनां च मूर्त्तेः । निष्क्रियस्य स्थाणोः
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'लक्षण' शब्द का अर्थ है स्वरूप', तदनुसार उक्त वाक्यों का यह अभिप्राय है कि संयोग का स्वरूप क्या है ? एवं उसके कितने भेद हैं ? 'अप्राप्तयोः प्राप्तिः संयोगः ' इस वाक्य से संयोग का लक्षण ( स्वरूप ) कहा गया है । पहिले से अप्राप्त दो द्रव्यों की बाद में जो 'प्राप्ति' अर्थात् सम्बन्ध ( होता है ), वही ( सम्बन्ध ) संयोग है । ( इस लक्षण वाक्य में ) 'अप्राप्तयोः ' यह पद समवाय में अतिव्याप्ति को हटाने के लिए है ।
'सच त्रिविधः' इत्यादि से अब इसके भेदों को समझाते हैं । ( प्रकृत वाक्य में ) 'च' शब्द अवधारण के लिए है । तदनुसार प्रकृत वाक्य का यह अर्थ है कि संयोग तीनही प्रकार के हैं । 'अन्यतरकर्मजः' इत्यादि से वे तीनों भेद दिखलाये गये हैं । संयोग के दोनों सम्बन्धियों में जो 'अन्यतर' अर्थात् एक द्रव्य है, केवल उसी द्रव्य की क्रिया से उत्पन्न होने वाले संयोग को अन्यतरकर्मज कहते हैं । 'उभयोः द्रव्ययोः' इत्यादि व्युत्पत्ति के अनुसार 'उभयकर्मज ' शब्द का वह संयोग अर्थ है - जिसकी उत्पत्ति संयोग के सम्बन्धी रूप दोनों द्रव्यों की दोनों क्रियाओं से होती है । उसी को 'उभयकर्मज्' संयोग कहते हैं। संयोग से भी संयोग की उत्पत्ति होती है, ( अर्थात् संयोग से उत्पन्न संयोग को ही संयोगज संयोग कहते हैं ) । 'तत्रान्यतरकर्मजः' अर्थात् 'तेषां त्रयाणां मध्ये' अर्थात् उन तीनों संयोगों में से क्रिया से युक्त एक द्रव्य के साथ तथा क्रिया से रहित दूसरे द्रव्य के साथ के संयोग को 'अन्यतरकर्मज संयोग' कहते है । 'यथा स्थाणो:' इत्यादि वाक्य से अन्यतर