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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे संयोग
प्रशस्तपादभाष्यम् द्रष्यारम्भ निरपेक्षस्तथा भवतीति, "सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च" इति बच. नात् । गुणकारम्भे तु सापेक्षः, “संयुक्तसमवायादग्नेवैशेषिकम्" इति वचनात् । यह द्रव्य का स्वतन्त्र उत्पादक है। (द्रव्य के उत्पादन में इसकी औरों से) इस विशेष की सूचना तथा भवति' और 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' सूत्रकार की इन दो उक्तियों से सिद्ध है। गुण के उत्पादन में इसे
और कारणों की भी अपेक्षा होती है, क्योंकि 'संयुक्तसमवायादग्नेवैशेषिकम्' सूत्रकार की ऐसी उक्ति है।
न्यायकन्दली वाच्यम् । यदेव भवतामसंयुक्तयोः संयोगे कारणं तदेव नः सान्तरयोरन्तराभावे कारणमिति चेत् ? अस्तु, कामं किन्त्विदं स्वाश्रयं देशान्तरं प्रापयत् तदन्तराभावं करोति ? अप्रापयद्वा ? अप्राप्तिपक्षे तावदन्तराभावो दुर्लभो पूर्वावष्टब्धे एव देशेऽवस्थानात् । देशान्तरप्राप्तिपक्षे तु तस्याः को नामान्यः संयोगो य: प्रतिषिध्यते ? अविरलदेशे द्रव्यस्योत्पादे संयोगव्यवहार इति चेत् ? न, उत्पादमात्रे संयोगव्यवहारः, किन्त्वविरलदेशोत्पादे, यैवेयमुत्पाद्यमानयोरविरलदेशता स एव संयोगः।
स च द्रव्यगुणकर्महेतुः । तन्तुसंयोगो द्रव्यस्य पटस्य हेतुः, आत्ममनःसंयोगो बुद्धयादीनां गुणानाम् ; एवं भेर्याकाशसंयोगः शब्दस्य गुणस्य हेतुः, प्रयत्नवदात्महस्तसंयोगो हस्तकर्मणो हेतुः, तथा वेगवद्वायुमानें तो फिर व्यवधान का अभाव सम्भव न होगा, क्योंकि (कारण का आश्रय) अपने ही देश में बैठा है। अगर दूसरा पक्ष कहें कि दूसरे देश में अपने आश्रय को सम्बद्ध करके ही वह व्यवधान को मिटाता है तो फिर संयोग को छोड़कर वह कौन सी दूसरी वस्तु है जिसका आप निषेध करते हैं ? (प्र०) अविरल (व्यवधान शून्य) द्रव्य की उत्पत्ति होने पर ही संयोग का व्यवहार होता है । (उ०) उत्पन्न हुई सभी वस्तुओं में तो संयोग का व्यवहार नहीं होता है, तो फिर अविरल देश में उत्पन्न जिन दो वस्तुओं में संयोग का व्यवहार होता है, उन दोनों वस्तुओं का अविरलदेशत्व ही संयोग है।
'स च द्रव्यगुणकर्महेतुः' (संयोग द्रव्य, गुण और कर्म का कारण है) तन्तुओं का संयोग (पट रूप) 'द्रव्य' का कारण है। आत्मा और मन का संयोग बुद्धिप्रभृति 'गुणों का कारण है। भेरी और आकाश का संयोग शब्द (रूप गुण) का कारण है । प्रयत्न से युक्त आत्मा और हाथ का संयोग हाथ की क्रिया का कारण है। वेग से
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