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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संयोगभावात् सतोऽप्यनुपलब्धिरिति ? न, कारणव्यापारस्यापि सर्वदा तत्र सम्भवात्, व्यापारोऽपि पूर्वमनभिव्यक्तः सम्प्रति कारणैरभिव्यज्यमानो भावमुपलम्भयतीति चेत् ? अभिव्यक्तिरपि यद्यसती? कथं तस्याः कारणम् ? सतीति चेद्भावोपलम्भप्रसङ्गस्तदवस्थ एवेति कस्यचिदपूर्वस्य विशेषस्योपजननमन्तरेण प्रागनुपलब्धस्य पश्चादुपलम्भो दुर्घटः ।
यच्चोक्तम्--असदशक्यकरणं व्योमकुसुमवदिति, तत्र स्वभावभेदाद् असदेकस्वभावं गगनकुसुमम्, सदसत्स्वभावं तु घटादिकम् ? तत्पूर्वमसत् पश्चात्सद्भवति । कथं सदसतोरेकत्र न विरोध इति चेत् ? कालभेदेन समावेशात् । प्रागुत्पत्तेः पटस्य धर्मिणोऽभावात् कथमसत्त्वं तस्य धर्म इति चेत् ? यादृशो यक्षस्तादृशो बलिः, सत्त्वमसतो धर्मो न स्यादसत्त्वं त्वसत एव युक्तम् । यदसत् पूर्वमासीत् तस्य कथं सत्त्वमिति चेत् ? कारणसामर्थ्यात्, अस्ति स कोऽपि महिमा तुर्यादीनां
रहने से ही उत्पत्ति से पहिले तन्तुओं में विद्यमान रहने पर भी पट का प्रत्यक्ष नहीं होता है । ( उ० ) ऐसा आप नहीं कह सकते, क्योंकि आपके मत से सभी कार्य उत्पत्ति से पहिले भी सत् हैं, अतः जुलाहे प्रभृति का व्यापार भी सत् है, अतः वे भी सर्वदा रहेंगे ही। (प्र.) कारणों का वह व्यापार भी पहिले से अनभिव्यक्त ही रहता है, उन्हीं कारणों से अभिब्यक्त होकर पटादि कार्यों के प्रत्यक्ष में सहायक होता है । ( उ०) कारणों की यह अभिव्यक्ति सत् है ? या असत् ? अगर असत् है तो फिर वह उस प्रत्यक्ष का कारण कैसे हो सकती है ? अगर सत् है तो पटादि प्रत्यक्ष की उक्त आपत्ति है ही। अत: किसी अपूर्व विशेष की उत्पत्ति के बिना पहिले से अनुपलब्ध वस्तु की पीछे उपलब्धि सम्भव नहीं है।
___ यह जो आपने कहा कि 'आकाशकुसुम की तरह असत् वस्तु का उत्पादन असम्भव है' यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि वस्तु भिन्न भिन्न स्वभाव की होती हैं । आकाश कुसुम का केवल 'असत्त्व' ही स्वभाव है । घटादि वस्तुओं के सत्त्व और असत्त्व दोनों ही स्वभाव हैं। वे पहिले असत् रहते है, पीछे से सत् हो जाते हैं। (प्र०) एक आश्रय में सत्त्व और असत्त्व दोनों में विरोध क्यों नहीं होता है ? ( उ०) ( यद्यपि वे दोनों एक ही समय एक आश्रय में नहीं रह सकते फिर भी) काल भेद से वे दोनों एक आश्रय में रह सकते हैं । (प्र०) उत्पत्ति से पहिले तो पट रूप धर्मी ही नहीं है, फिर असत्त्व उसका धर्म किस प्रकार होगा? (उ.) "जैसा देवता वैसा ही उनका भोग' (इस न्याय से) असत् वस्तुओं का सत्त्व धर्म तो होगा नहीं, अतः यही ठीक है कि असत्त्व ही उसका धर्म है । (प्र०) जो पहिले असत् रहा कभी भी सत्त्व उसका धर्म कैसे हो सकता है ? ( उ०) कारणों के सामर्थ्य से ( असत् वस्तुओं का भी सत्त्व धर्म हो सकता है । तुरीवेमादि कारणों की ही यह अपूर्व महिमा है कि जब ये मिलकर काम
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