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प्रकरणम् । भाषानुवादसहितम्
३३७ न्यायकन्दली संयोगस्तृणकर्मणो हेतुरित्यादिकमूह्यम् । यथायं द्रव्यमारभते, यथा च गुणकर्मणी, तं प्रकारं दर्शयति-द्रव्यारम्भ इत्यादिना । द्रव्यस्यारम्भ कर्तव्ये संयोगः स्वाश्रयं स्वनिमित्तं च कारणमन्तरेण नान्यदपेक्षते। न त्वयमनपेक्षार्थः पश्चाद्भावि निमित्तान्तरं नापेक्षत इति, श्यामादिविनाशानन्तरभाविनोऽन्त्यस्य परमाण्वग्निसंयोगस्य पाकजानां गुणानामपि आरम्भे निरपेक्षकारणत्वप्रसङ्गात् । कथमेतदवगतं त्वया यदयं द्रव्यारम्भे निरपेक्षः संयोग इति ? तत्राह –तथा भवतीति । 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' इति वचनात, पटार्थमुपक्रियमाणेभ्यस्तन्तुभ्यो 'भविष्यति पटः' इति प्रत्ययो जायत इति पूर्व प्रतिपाद्य सूत्रकारेणैतदुक्तम्-तथा भवतीति सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्चेति । अस्यायमर्थो यथोपक्रियमाणेभ्यो भविष्यति पट इति प्रत्ययस्तथा सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्चेति
युक्त वायु का संयोग तिनके की क्रिया का कारण है 'द्रव्यारम्भे' इत्यादि से यह प्रतिपादन करते हैं कि संयोग किस रीति से द्रव्य का उत्पादन करता है, एवं किस प्रकार वह गुण एवं क्रिया का उत्पादन करता है । 'द्रव्यारम्भे निरपेक्षस्तथा भवति' इस वाक्य में प्रयुक्त 'अनपेक्ष' शब्द का यही अर्थ है कि संयोग को द्रव्य के उत्पन्न करने में द्रव्य के समवायिकारणों और निमित्तकारणों को छोड़कर और किसी की अपेक्षा नहीं होती है। उक्त 'अनपेक्ष' शब्द का यह अर्थ नहीं है कि पीछे उत्पन्न होनेवाले भी किसी गुण को अपेक्षा उसे नहीं होती है, अगर ऐसा माने तो श्यामादि गुणों के नष्ट होने के बाद उत्पन्न होनेवाले अग्निसंयोग को भी पाकज रूपादि के प्रति निरपेक्ष कारण मानना पड़ेगा। (प्र. ) यह तुमने कैसे समझा कि द्रव्य के उत्पादन में संयोग को और किसी को अपेक्षा नहीं होती है ? इसी प्रश्न का समाधान तथा भवति' और 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' इत्यादि दो सूत्रों के उल्लेख से करते हैं। अभिप्राय यह है कि सूत्रकार ने पहिले यह प्रतिपादन किया है कि 'पट के लिए व्याप्त तन्तुओं से पट की उत्पत्ति होगी' इस प्रकार का प्रतीति होती है। इसके बाद सूत्रकार के द्वारा 'तथा भवति' एवं 'सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्च' ये दो सूत्र कहे गये हैं। इन दोनों सौत्र वाक्यों का यह अर्थ है कि जिस प्रकार पट के लिए व्यापृत तन्तुओं में यह प्रतीति होती है कि सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों प्रकार के पट की इनसे
१. समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले कार्यों का असमवाथिकारण भी अवश्य होता है। अतः कार्यरूप द्रव्य, गुण और कर्म इन तीनों के असमवायिकारण भी अवश्य हैं। किन्तु इसमें द्रव्य के असमवायिकारण में यह विशेष है कि उसके उत्पन्न हो जाने पर कार्य के उत्पादन में और किसी को अपेक्षा नहीं रहती है। असमवायिकारण का सम्बन्ध होने के अव्यवहित उत्तर क्षण में ही कार्य उत्पन्न हो जाता है । कपालों का संयोग होने पर या तन्तुओं में संयोग होने पर घट या पट रूप कार्य अव्यवहित उत्तर क्षण में उत्पन्न हो ही जाता है,
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