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[गुणे संयोग
न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
न्यायकन्दली
भवतीति वर्तमानप्रत्ययः, अन्यथा सापेक्षेभ्यो निरपेक्षेभ्यश्चेति भवतीति वर्तमानप्रत्ययो न स्यात, यदा कतिचित्तन्तवः संयुक्ता वर्तन्ते कतिचिच्चासंयुक्तास्तदा तेभ्यो भवति पट इति प्रत्ययः स्यादित्यर्थः । अत्र सूत्रे वार्तमानिकप्रतीतिहेतुत्वेनाभिधीयमानेषु तन्तुषु संयुक्तेष्वेवानपेक्षशब्दप्रयोगात संयोगो द्रव्यारभ्भे निरपेक्ष इति प्रतीयत इति तात्पर्यम् । तुशब्देन पूर्वस्माद्विशेषं प्रतिपादयन्नाह-गुणकर्मारम्भे तु सापेक्षः। कुतो ज्ञातमित्यत आह-संयुक्तसमवायादिति।
__ अग्नेवैशेषिकमित्यग्निगतमुष्णत्वं विवक्षितम् । तत्पार्थिवपरमाणुसंयुक्ते वह्नौ समवायात् परमाणौ रूपाद्युत्पत्तिकारणमित्यस्माद्वचनाद् गुणारम्भे परमाण्वग्निसंयोगस्योष्णस्पर्शसापेक्षत्वं प्रतीयते, अन्यथा वह्निसंयोगजेषु रूपादिषु वह्निस्पर्शस्य कारणत्वाभिधानायोगात्, बुद्धयारम्भे आत्ममनःसंयोगस्य स्वाश्रय
उत्पत्ति होगी, उसी प्रकार यह वर्तमान त्वविषयक प्रतीति भी होती है कि सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों प्रकार के तन्तुओं से पट उत्पन्न हो रहा है। संयोग अगर निरपेक्ष होकर द्रव्य का उत्पादक न हो तो फिर उक्त वर्तमानत्व विषयक प्रतीति नहीं हो सकेगी, प्रत्युत जिम समय पट के उत्पादक तन्तुओं में से कुछ परस्पर संयुक्त हैं और कुछ असंयुक्त, उस समय भी वर्तमानत्व की प्रतीति होगी। कहने का तात्पर्य है कि वर्तमानकालिक उक्त प्रतीति के कारण रूप से कथित परस्पर संयुक्त उक्त तन्तुओं में 'अनपेक्ष' शब्द का प्रयोग किया गया है, अतः समझते हैं कि संयोग को द्रव्य के उत्पादन में किसी और की अपेक्षा नहीं है। 'गुणकर्मारम्भे तु सापेक्षः' यह वाक्य अपने 'तु' शब्द के द्वारा अपने पहिले पक्ष से इस पक्ष में अन्तर को समझाने के लिए लिखा गया है। यह आपने कैसे समझा ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए संयुक्तसमवायात्' यह वाक्य लिखा गया है।
___ 'अग्नेर्वैशेषिकम्' इस वाक्य से अग्नि में रहनेवाला उप्ण स्पर्श अभीष्ट है। वह उष्ण स्पर्श पार्थिवपरमाणु से संयुक्त वह्नि में समवाय सम्बन्ध से रहने के कारण परमाणु में होनेवाले ( पाकज ) रूप की उत्पत्ति का कारण है, इस वाक्य से यह समझते हैं कि परमाणु और अग्नि के संयोग से जो पाकजरूप की उत्पत्ति होती है, उसमें उसे उष्णस्पर्श की भी अपेक्षा रहती है। अगर ऐसी बात न हो तो फिर वह्निसंयोग से उत्सन्न होनेवाले रूपादि के प्रति वह्नि को कारण कहना ही असङ्गत हो जाएगा । एवं आत्मा और मन के संयोग को बुद्धि के उत्पादन में अपने आश्रय और निमित्त को छोड़कर
अतः द्रव्य के उत्पादन में असमवायिकारणीभूत संयोग को किसी और की अपेक्षा नहीं रह जाती है । गुणों के असमवायिकारण के प्रसङ्ग में यह बात नहीं है, क्योंकि कपाल में रूप की उत्पत्ति के बाद कपालसंयोगादि क्रम से जब घट की उत्पत्ति हो जाती है, उसके बाद घट में उस रूप की उत्पत्ति होती है, जिसमें कपाल का रूप असमवायिकारण है, अतः गुण के उत्पादन में असमवायिकारण को उस गुण के आश्रयादि को भी अपेक्षा रहती है।
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