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সকল }
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली शब्दस्य तु कथम् ? न ह्यसावर्थात्मा, अन्नाग्न्यसिशब्दोच्चारणे मुखस्य पूरणदाहपाटनप्रसङ्गात् । नाप्यर्थजः, कौष्ठयवायुकण्ठाद्यभिघातजत्वात् अतदात्मनोऽतदुत्पन्नस्य प्रतिपादकत्वे चातिप्रसङ्गात् । तदयुक्तम्, यदि कण्ठाद्य भिघातमात्रज एव शब्दो न वक्तुर्विवक्षामपि प्रतिपादयेत् तदुत्पत्त्यभावात् । तथा च वक्तुविवक्षामपि न सूचयेयुः शब्दा इति प्रमत्तगीतं स्यात् । पारम्पर्येण विवक्षापूर्वकत्वाच्छब्दस्य विवक्षाप्रतिपादकत्वमिति चेत् ? एवमर्थानुभवप्रतिपादकत्वमपि, विवक्षाया अर्थानुभवपूर्वकत्वात् । असत्यप्यर्थानुभवे विप्रलम्भकस्य तदर्थविवक्षाप्रतीतिरिति चेत् ? असत्यामपि तदर्थविवक्षायां भ्रान्तस्य तदर्थविषयं वाक्यमुपलब्धम् । यथाहुराचार्याः
____ 'भ्रान्तस्यान्यविवक्षायामन्यद् वाक्यं हि दृश्यते।' इति ।
नान्यविवक्षातोऽन्याभिधानसम्भवः, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यद् यस्य कारणमवगतं तस्य तद्वयभिचारे विश्वस्याकस्मिकत्वप्रसङ्गात्, अतो भ्रान्तस्याप्रतीयमानापि
(प्र.) किन्तु 'शब्द' अपने बोध्य अर्थ का साधक किस तरह से है ? शब्द स्वयं अर्थ स्वरूप नहीं है, अगर ऐसी बात हो तो अन्य शब्द के उच्चारण से ही पेट भर जाय, 'अग्नि' शब्द के उच्चारण से मुंह जल जाय, एवं असि (तलवार) शब्द के उच्चारण से मुह कट जाय । अर्थ से शब्द की उत्पत्ति भी नहीं होती है, क्योंकि कोष्ठसम्बन्धी वायु के कण्ठादि देशों के साथ अभिघात से शब्द की उत्पत्ति होती है। शब्द से भिन्न होने पर भी एवं शब्द का कारण न होने पर भी अगर शब्द से अर्थ का प्रतिपादन माना जाय तो अतिप्रसङ्ग होगा। (उ०) किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि अगर शब्द की उत्पत्ति कण्ठादि के अभिघात से ही हो (विवक्षा वक्ता के अर्थ प्रतिपादन की इच्छा से नहीं) तो फिर शब्द विवक्षा का भी ज्ञापक नहीं होगा, क्योंकि विवक्षा से उसकी उत्पत्ति नहीं होती है। अगर विवक्षा की सूचना भी शब्दों से नहीं होगी तो फिर शब्दों का प्रयोग केवल पागल का प्रलाप ही होगा। (प्र.) (विवक्षा साक्षात् शब्द का उत्पादक न होने पर भी) परम्परा से शब्द का उत्पादक है, अतः शब्द विवक्षा का ज्ञापक है। (उ०) इस प्रकार तो शब्द अर्थानुभव का भी सूचक है ही, क्योंकि विवक्षा अर्थानुभव से ही उत्पन्न होती है । (प्र.) अर्थ का अनुभव न रहने पर भी वश्वक पुरुष में अर्थ की विवक्षा देखी जाती है। (उ०) विवक्षा के न रहने पर भी भ्रान्त व्यक्ति के द्वारा उस अर्थ के बोधक शब्द का प्रयोग भी तो देखा जाता है ।
__जैसा कि आचार्यों ने कहा है कि 'भ्रान्तपुरुष कहना कुछ चाहता है, किन्तु कहता कुछ और ही है' (प्र०) एक की विवक्षा से दूसरा पुरुष शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि अन्वय और व्यतिरेक से जिसमें कारणता निश्चित है, उसके रहते हुए भी अगर कार्य की उत्पत्ति कभी न भी हो तो फिर संसार की सभी रचनाएँ अनियमित हो जाएंगी।
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