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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली स्तावत्कारणत्वमाह-तत्रेति। परमाणुभ्यामारब्धं द्वयणुकं परमाणुद्वचणुकमित्युच्यते । तेषु त्रिष्वेकैकगुणालम्बनामीश्वरबुद्धिमपेक्ष्योत्पन्ना या त्रित्वसंख्या सा त्रिभिर्द्वयणुकरारब्धकार्यद्रव्ये त्र्यणुकलक्षणे रूपाद्युत्पत्तिसमकालमेव महत्त्वं दीर्घत्वं च करोति । तत्रेतिपदं महत्परिमाणकारणनिवारणार्थम्, त्र्यणुकादीत्यादिपदं चतुरणुकादिपरिग्रहार्थम् । कथं पुनरेष निश्चयः, त्र्यणुकादिपरिमाणस्य द्वयणुकगता बहुत्वसंख्येवासमवायिकारणमिति ? अन्यस्यासम्भवात् । न तावद् द्वयणुकवृत्तयो रूपरसगन्धस्पर्शकत्वैकपृथक्त्वगुरुत्वद्रवत्वस्नेहास्तस्यासमवायिकारणम्, तेषां कारणवृत्तीनां कार्ये गुणमारभमाणानां समानजातीयगुणान्तरारम्भे एव सामर्थ्यदर्शनात् । द्वयणुकाणुपरिमाणानां चारम्भकत्वे त्र्यणु कस्याणुत्वमेव स्यान्न महत्त्वम्, परिमाणात् समानजातीयस्यैव परिमाणस्योत्पत्त्यवगमात् । अस्ति चात्र महत्त्वम्, भूयोऽवयवारब्धत्वात् घटादिवत् । न चासमवायिकारणं विना कार्यमुत्पद्यते, दृष्टश्चान्यत्रावयवसंख्याबाहुल्यात् समानपरिमाणारब्धयोः कार्ययोरेकत्र महत्त्वा
उक्त तीनों परमाणु घणुकों में से प्रत्येक में एक गुण विषयक (एकत्व संख्या विषयक) 'यह एक है' इस आकार के ईश्वरीयज्ञान (रूप अपेक्षा बुद्धि) से जो त्रित्व संख्या उत्पन्न होती है. वही तीन द्वथणुकों से उत्पन्न व्यसरेणु रूप द्रव्य में रूपादि गुणों की उत्पत्ति के समय ही महत्त्व और दीर्घत्व परिमाण को उत्पन्न करती है। ('तत्रेश्वरबुद्धि' इत्यादि वाक्य में प्रयुक्त) 'तत्र' पद यह समझाने के लिए है कि यसरेणु में रहनेवाले महत्त्व की कारणता महत्परिमाण में नहीं है। (त्र्यणुकादि पद में प्रयुक्त) 'आदि' पद 'चतुरणुक' का संग्राहक है। (प्र.) यह निर्णय कैसे करते हैं कि व्यणुकादि गत परिमाणों का द्वथणुकों में रहनेवाली बहुत्व संख्या ही कारण है ? (उ०) चूकि दूसरी किसी वस्तु में उक्त परिमाण की कारणता सम्भव नहीं है। समवायिकारणों में रहनेवाले रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, एकत्व, एकपृथक्त्व, गुरुत्व, द्रवत्व और स्नेह ये सभी गुण अपने आश्रय रूप समवायिकारणों से उत्पन्न द्रव्य में रहनेवाले कथित रूपादि गुणों में से कोई भी व्यसरेणु में रहनेवाले परिमाणों के असमवायिकारण नहीं हो सकते । द्वयणुकों के अणुपरिमाण भी त्र्यणुकादि के परिमाणों कारण के नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा मानने पर त्र्यणुक का परिमाण भी 'अणु' ही होगा 'महत्' नहीं, क्योंकि यह नियम है कि परिमाण अपने समानजातीय दूसरे परिमाण को ही उत्पन्न कर सकता है, विभिन्न जातीय परिमाणों को नहीं। त्र्यणुकादि द्रव्यों में महत्परिमाण ही है, क्योंकि (महत्परिमाणवाले) घटादि की तरह वे भी बहुत से अवयवों से उत्पन्न होते हैं। असमवायिकारण के बिना (समवेत) कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती है, और स्थानों में भी समानपरिमाण के विभिन्न न्यूनाधिक संख्या के अवयवों से उत्पन्न द्रव्यों
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