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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम
[गुणे परिमाण
प्रशस्तपादभाष्यम् त्पनिसमकालं महत्त्वं दीर्घत्वं च करोति । द्विवहुभिर्महद्भिश्चारब्धे कार्यद्रव्ये कारणमहत्त्वान्येव महत्वमारभन्ते न बहुत्वम् । समानरूप द्रव्य में जिस समय रूपादि गुणों की उत्पत्ति होती है, उसी समय उक्त बहुत्व संख्या से उक्त द्रव्य में महत्त्व एवं दीर्घत्व परिमाणों की भी उत्पत्ति होती है । महत्परिमाणवाले दो या उससे अधिक अवयवों से उत्पन्न द्रव्य में कारणों (अवयवों) के महत्त्व ही महत्परिमाण को उत्पन्न करते हैं,
न्यायकन्दली तिशयः । तेनात्र संख्याया एव कारणत्वं कल्प्यते । द्वयणुकसंयोगाभ्यां त्र्यणुके महत्त्वोपपत्तिः स्यात्, यदि भूयसामवयवानां संयोगः कारणमित्युच्यते, प्राप्ताप्राप्तविवेकादवयवानां भूयस्त्वमेव कारण समर्थितं स्यात्, ईश्वरबुद्धयपेक्षस्य त्रित्वस्य स्थितिहेत्वदृष्टक्षयाद्विनाशो न तु कदाचिदाश्रयविनाशादपि विनाशः, ईश्वरबुद्धनित्यत्वात् ।
___सम्प्रति महत्त्वान्महत्त्वोत्पत्तिमाह-द्विबहुभिर्महद्भिरिति । द्वौ च वहवश्च तैरारब्धे कार्यद्रव्ये कारणमहत्त्वान्येव महत्त्वमारभन्ते, यत्र द्वाभ्यां महद्भ्यामप्रचिताभ्यामारम्यते द्रव्यं तत्रावयवमहत्त्वाभ्यामेव महत्त्वस्योत्पादो बहुत्वसंख्याप्रचययोरभावात् । यत्र च बहुभिर्महद्भिरवयवैः कार्यमारभ्यते तत्रावयवमहत्त्वेभ्योऽवयविनि महत्त्वस्योत्पादो न बहुत्वसंख्यायाः, समानमें परिमाण का न्यूनाधिकभाव देखा जाता है, अतः कल्पना करते हैं कि (व्यणुकादि द्रव्यों के परिमाण का) संख्या ही (असमवायि) कारण है। अगर वहुत से अवयवों के संयोग को ही उन महत्त्वों का कारण मानें तो फिर विचार कर देखने से समवायिकारणों के बहुत्व में ही उक्त महत्त्वों की कारणता का समर्थन होता है। ईश्वर की अपेक्षाबुद्धि से उत्पन्न होनेवाले त्रित्व का विनाश उसके संस्थापक अदृष्ट के नाश से ही होता है. आश्रय के विनाश से उसका विनाश कभी नहीं होता, क्योंकि ईश्वर नित्य है।
द्विबहुभिर्महद्भिः' इत्यादि से महत्परिमाण से पहत्परिमाण की उत्पत्ति कहते हैं। 'द्वौ च बहवश्च द्विबहवः, तैः द्विबहुभिः इस व्युत्पत्ति के अनुसार उक्त वाक्य का यह अर्थ है कि दो या उनसे अधिक महान् अवयवों से आरब्ध द्रव्य के महत्त्व की उत्पत्ति समवायिकारणों के महत्त्व से ही होती है। अभिप्राय यह है कि जिस द्रव्य की उत्पत्ति प्रचय से शून्य दो महान् अवयवों से होती है, उस द्रव्य के महत्व का (असमवायि) कारण उन दोनों अवयवों के दोनों महत्त्व ही हैं, क्योंकि महत्त्व के उक्त कारणों में से बहुत्व संख्या और प्रचय ये दोनों ही वहाँ नहीं हैं जहाँ बहुत से महान् अवयवों से कार्यद्रव्य की उत्पत्ति होती है, उसमें अवयवों के महत्त्व से ही
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