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प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली इत्येके । अन्ये तु परमाणुपरममहद्वयवहारवत् परमहस्त्रपरमदीर्घव्यवहारस्यापि लोके दर्शनात् परमाणुषु परमहस्वत्वं परमदीर्घत्वं चाकाशे इत्याहुः । दीर्घपरिमाणाधिकरणमाकाशं महत्परिमाणाश्रयत्वात् स्तम्भादिवत् । एवं ह्रस्वपरिमाणाश्रयः परमाणुः, अणुपरिमाणाश्रयत्वात्, द्वयणुकवत् ।
यदि ह्रस्वत्वमुत्पाद्यनाणुत्वेनैकार्थसमवेतं कथमन्यत्र ह्रस्वत्वव्यवहारः ? तत्राह-समिदिक्षुवंशादिष्विति। समिच्चक्षुश्च वंशाश्च समिदिक्षुवंशाः। एतेष्वजसा परमार्थतो दीर्घष्वपि वंशे य: परिमाणप्रकर्षभावो दोर्धातिशययोगित्वं तस्याभावमिक्षावपेक्ष्य प्रतीत्य भाक्तो गौणो व्यवहारः, एवमिक्षोः प्रकर्षभावस्तस्याभावं समिध्यपेक्ष्य ह्रस्वव्यवहारः । यत् खलु परमार्थतो ह्रस्वं द्वयणुकं तत्र दैाभावः,
है। एवं आकाशादि में भी परममहत्परिमाण के रहने से उनमें दीर्घत्व परिमाण नहीं है। कोई कहते हैं कि (जैसा कि आकाशादि में परममहत्त्व का एवं (परमाणु में) परम अणुत्व का व्यवहार लोक सिद्ध है वैसे ही (दोनों में क्रमशः) परमदीर्घस्व एवं परमहस्वत्व का भी व्यवहार लोकसिद्ध है, अतः आकाशादि में परमदीर्घत्व भी है एवं परमाणु में परम ह्रस्वत्व भी है। (इस प्रसङ्ग में अनुमानों का प्रयोग इस प्रकार है कि) (१) जिस प्रकार स्तम्भ महत्परिमाण के आभय होने से दीर्धत्व परिमाण का भी आश्रय है, वैसे ही आकाशादि भी परमदीर्घत्व परिमाण के आश्रय हैं। (२) एवं जिस प्रकार द्वयणुक में अणुपरिमाण के रहने से उसमें ह्रस्वपरिमाण भी रहता है वैसे ही परमाणु में भी ह्रस्वपरिमाण है, क्योंकि वह भी अणुपरिमाणवाला है।
(प्र०) जहाँ समवाय सम्बन्ध से उत्पत्तिशील अणुत्व रहता है वहीं अगर उत्पत्तिशील ह्रस्वत्व भी समवाय सम्बन्ध से रहता है तो फिर अन्यत्र (महत्परिमाण के आभय) बांस प्रभृति में, ह्रस्वत्व का व्यवहार कैसे होता है ? इसी प्रश्न का समाधान 'समिदादिषु' इत्यादि से देते हैं। समिध् (इन्धन), ईख और बांस इन सबों में 'अञ्जसा' अथात् वस्तुतः दीर्घत्व के रहने पर भी बांस के परिमाण का जो 'प्रकर्षभाव' अर्थात् विशेष प्रकार के दीर्घपरिमाण का सम्बन्ध है, उस प्रकार के दीर्घपरिमाण का सम्बन्ध ईख में नहीं है। इसी कारण ईख में ह्रस्वत्व का 'भाक्त' अर्थात्, गौण व्यवहार होता है। इसी तरहु ईख में जो परिमाण का प्रकर्ष है वह समिध् में नहीं है। इसी से ईख में भी ह्रस्वत्व का गौण व्यवहार होता है। जो द्रव्य वास्तव में ह्रस्व है, जैसे कि द्वयणुक उसमें दीर्घत्व अवश्य ही नहीं है । ईख में भी बांस में रहनेवाला परिमाण का प्रकर्ष नहीं है, अतः उसमें भी अणुत्व का भाक्त व्यवहार ही होता है। (प्र०) इनमें ह्रस्वत्व के व्यवहारों को भी मुख्य ही क्यों नहीं मानते ? (उ०) चूंकि उनमें ही
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