________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
प्रशस्तपादभाष्यम्
माण्डन्यम् । अनित्यं द्वथणक एव । कुवलयामलकबिल्वादिषु महत्स्वपि तत्प्रकर्षभावाभावमपेक्ष्य भाक्तोऽणुत्वव्यवहारः । दीर्घत्व हस्वत्वे यही अणुपरिमाण पारिमाण्डल्य कहलाता है । अनित्य ( अणुपरिमाण ) केवल द्व्यणुक रूप द्रव्य में ही है। कुवलय, आमला और बेल प्रभृति के महत्परिमाणों में अणुत्व का जो व्यवहार होता है, वह महत्परिमाणों के न्यूनाधिकभाव के कारण गौण है । जिन आश्रयों के महत् (परिमाण) और अणु (परिमाण) उत्पत्ति
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
३१६
न्यायकन्दली
नो प्रत्यक्षयति तत्राविति व्यवहारः । न चैवं सति त्र्यणुकस्याप्यणुत्वप्रसक्ति: ? तस्यापि प्रत्यक्षत्वात् त्र्यणुकमस्मदादिप्रत्यक्षं बहुभिः समवायिकारणैरारब्धत्वात्, घटवत् । यस्य च प्रत्यक्षस्य द्रव्यस्यावयवा न प्रत्यक्षास्तदेव त्र्यणुकम् । आकाशपरिमाणस्य तु प्रत्यक्ष हेतुत्वाभावेऽपि महत्त्वमेव, तदाश्रयस्य द्वघणुकव्याप्तितोऽधिकव्याप्तित्वात्, घटादिपरिमाणवत् ।
अनित्यमणुपरिमाणं द्वयणुक एवेत्ययुक्तम्, कुवलयामलक बिल्वादिषु परस्परापेक्षयाणुव्यवहारदर्शनादत आह- कुवलयामलकबिल्वादिष्विति । बिल्वे यः प्रकर्षभावो महत्परिमाणातिशययोगित्वं तस्यामलकेऽभावमपेक्ष्याणुव्यवहारो भाक्तः । उभाभ्यां भज्यते इति भक्तिः सादृश्यम्, तस्यायमिति भाक्तः, सादृश्यमात्र निबन्धनो गौण इत्यर्थः । एवमामलकपरिमाणातिशयाभावं काम नहीं होता है उस परिमाण को 'अणु' कहते हैं। इसी से व्यसरेणु के परिमाण में अणुत्व की आपत्ति नहीं होती है, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष होता है । त्र्यणुक की उत्पत्ति घटादि की तरह अनेक अवयवों से होती है, अतः वह हम लोगों के प्रत्यक्ष का भी विषय है । प्रत्यक्ष दोखने वाले जिस द्रव्य के अवयवों का प्रत्यक्ष न हो उसे 'त्र्यणुक' कहते हैं । घटादि के परिमाणों की तरह आकाशादि के परिमाण की व्याप्ति द्वयक के परिमाण की व्याप्ति से अधिक है, अत: आकाशादि के परिमाण भी महत् ही हैं ।
For Private And Personal
( प्र०) यह कहना ठीक नहीं कि 'अनित्य अणुपरिमाण' केवल द्वथणुक में ही है, क्योंकि कुवलय, आंवला और बेल इन सबों में आपेक्षिक अणु' को व्यवहार देखा जाता है । इसी प्रश्न का उत्तर " कुवलयामलकबिल्वादिषु' इत्यादि पक्ति से देते हैं । बेल में जो प्रकर्षभाव अर्थात् विलक्षण महत्परिमाण का सम्बन्ध है वह आँवले में नहीं है, इसी से आँवले में 'अणुत्व' का भाक्त व्यवहार होता है। अभिप्राय यह है कि ' उभाभ्यां भज्यते इति भक्ति:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार केवल सादृश्य से होनेवाले व्यवहार को 'भाक्त' कहते हैं । इसी प्रकार आँवले में जिस उत्कृष्ट महत्परिमाण का सम्बन्ध है, उस प्रकार के महत्परिमाण का सम्बन्ध कुवलय में नहीं हैं । इसी से कुवलय