________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रकरणम् ।
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली एवं व्यवस्थिते परिमाणे तस्य भेदं कथयति-तच्चतुर्विधमिति । येन रूपेण चातुविध्यं तद्दर्शयति-अणु महद् दीर्घ ह्रस्वं चेति । चतुरस्रादिकं त्ववयवानां संस्थानविशेषो न परिमाणान्तरम् । दीर्घत्वादयोऽपि तथा भवन्तु ? न, अवयवसंस्थानानुपलम्भेऽपि दूराद् दीर्घादिप्रत्ययत्य दर्शनात् । अपि च भोः ! द्वयणुकपरिमाणं तावदणु, महत्परिमाणोत्पत्तौ कारणाभावात् । तस्माच्च परमाणुपरिमाणमपकृष्टम्, कार्यपरिमाणात् कारणपरिमाणस्य हीनत्वदर्शनात् । ततश्च परमाणोः परिमाणं द्वयणुकपरिमाणाद्भिन्नम् । एवं घटादीनां परिमाणादन्यदेव प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तमाकाशादिपरिमाणम्, तथा दीर्घ ह्रस्वं चेति परिमाणमष्टविधमेव, कुतश्चातुविध्यमित्याह-तत्रेति। तेषु चतुर्षु परिमाणेषु मध्ये महद् द्विविधं नित्यमनित्यं चेति । केषु नित्यमित्याह-नित्यमाकाशकालदिगात्मसु । तच्च परममहत्त्वमित्युच्यते ।
क्योंकि दूर से द्रव्य का ज्ञान होने पर भी उसके विशेष प्रकार के परिमाण का ज्ञान नहीं होता है, अतः भूल से बड़ी चीज भी छोटी प्रतीत होती है।
इस प्रकार परिमाण की सत्ता सिद्ध हो जाने पर 'तच्चतुर्विधम्' इत्यादि से उसके भेद कहे गये हैं। जिन भेदों से परिमाण के चार भेद हैं यह 'अणु महद्दीघ ह्रस्वञ्चेति' इस पङ्क्ति से कहा गया है। चौकोर आदि आश्रय द्रव्यों के अवयवों के विशेष प्रकार के विन्यास ही हैं, कोई स्वतन्त्र परिमाण नहीं। ( उ०) फिर दीर्घत्वादि भी अवयवों के विशेषविन्यास ही हों स्वतन्त्र परिमाण नहीं । ( उ० ) संस्थाव की अर्थात् अवयवों के विशेष विन्यास की प्रतीति दूर से नहीं होती है, किन्तु दीर्घत्वादि की प्रतीति दूर से भी होती है । (प्र. ) द्वयणुक 'अणु' परिमाण वाला है, क्योंकि वह महत्परिमाण का कारण नहीं है । एवं परमाणु का परिमाण ( अणु होते हुए भी ) द्वयणुक के परिमाण से न्यून है क्योंकि कार्य के परिमाण से कारण का परिमाण न्यून ही देखा जाता है । अतः परमाणु के परिमाण और द्वयणुक के परिमाण ( दोनों ही अणु होते हुए भी) भिन्न प्रकार के हैं। एवं घटादि के महत्परिमाण एवं महत्परिमाण के अन्तिम अवधि आकाशादि का महत्परिमाण दोनों ही ( महत्त्वत्वेन समान होने पर भी) भिन्न प्रकार के हैं। इसी प्रकार दीर्घ और ह्रस्व में भी समझना चाहिए । अतः परिमाण का आठ भेद होना ही उचित है चार भेद नहीं। इसी प्रश्न का उत्तर 'तत्र' इत्यादि
१. मुद्रित न्यायकन्दली पुस्तक में षड्विधमेव' ऐसा पाठ है, किन्तु सो असङ्गत मालूम होता है, क्योंकि जैसे द्वथणुक और परिमाणु के अणुत्व में अन्तर है, वैसे ही दोन के ह्रस्वत्व में भी अन्तर है। एवं जैसे कि घट और आकाशादि के महत्परिमाण में अन्तर है,
For Private And Personal