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प्रकरणम् ] भाषानुवादसहितम्
३११ न्यायकन्दली युगपत्प्रवृत्तेः, यस्त्वया दृष्टः स मयापीति प्रतिसन्धानात् । तस्मादर्थोऽयं न ज्ञानाकारः।
ये तु ज्ञानाकारमप्यपह्नवाना अलीका एव नीलादयः प्रतिभासन्ते इत्याहुः, तेषां कारणनियमादुत्पत्तिनियमोऽर्थक्रियानियमश्च न प्राप्नोति, अर्थाभावेन किञ्चित् कस्यचित् कारणम्, सर्व वा सर्वस्य, नार्थक्रियासंवादो न वा विसंवादो विशेषाभावात् । यथोक्तं गुरुभिः
आशामोदकतृप्ता ये ये चोपाजितमोदकाः ।
रसवीर्यविपाकादि तेषां तुल्यं प्रसज्यते ॥ इति । वासनाविशेषात् तद्विशेषसिद्धिरिति चेत् ? सा यदि बाह्यार्थक्रियाविशेषहेतुः ? संज्ञाभेदमात्रम्, अर्थो वासनेति । अथ ज्ञानात्मिका ? अर्थाभावे तस्या विशेषो निनिबन्धनो बोधमात्रस्योपादानस्य सर्वत्राविशेषात्, बोधाकारस्य व्यतिरिक्तस्य च विशेषस्याभ्युपगमेऽर्थसद्भावाभ्युपगमप्रसङ्गादित्युक्तम् । न चास्मिन् पक्षे नीलादिप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वं स्यात्, तज्जननसमर्थक्षणसन्तानस्य सर्वदानुवृत्तेः, अननुवृत्तौ वा कालान्तरेऽपि तत्प्रत्ययानुपपत्तिः, स्वव्यतिरिक्तस्यापेक्षणी. ही वस्तु की ओर एक ही समय अनेक व्यक्ति प्रवृत्त दीख पड़ते हैं । एवं इस प्रकार की प्रतीति भी होती है कि जिसको मैंने देखा था उसी को तुमने भी देखा है' अतः नीलादि (कोई भी) बाह्य वस्तु ज्ञान रूप नहीं है।
___ जो कोई ( माध्यमिक) विज्ञान के इस आकार का भी अपलाप करते हुए 'अलीक' (शून्य ) वस्तु को ही नीलादिबुद्धि का विषय मानते हैं, उनके मत से कारण के नियम से ( कपालादि कारण समूह से घट की ही उत्पत्ति हो पटादि की नहीं ) कायं के ( इस ) नियम को उपपत्ति नहीं होगी। एवं अर्थ-क्रिया ( प्रवृत्ति) का नियम भी अनुपपन्न हो जाएगा, क्योंकि अर्थक्रिया की सत्ता ही नहीं है। अत: यही कहना पड़ेगा कि किसी का कोई कारण नहीं है या सभी वस्तुएं सभी वस्तुओं के कारण हैं । एवं अर्थक्रिया की सफलता भी नहीं होगी विफलता भी नहीं होगी, क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है । जैसा कि गुरुओं ने कहा है कि (अगर शून्यता ही तत्त्व हो तो) मन के लड्डू खाने से तृप्त पुरुष के एवं यथार्थ मोदक का उपार्जन कर उसे खानेवाले पुरुष के रस, वीर्य और विपाकादि सभी समान ही होने चाहिए।
(प्र०) वासना के विशेष से दोनों में जो विशेष है, उससे उन दोनों पुरुषों के रस वीर्यादि के अन्तर की उपपत्ति होगी। (उ०) वासना अगर प्रयोजन विशेष के सम्पादन में समर्थ है ? तो फिर नाम का ही अन्तर रह जाता है कि हम उसे अर्थ कहते हैं और आप वासना कहते हैं। अगर वह भी ज्ञान स्वरूप ही है तो अर्थों के न रहने के कारण उसमें वैशिष्ट्य असम्भव है, क्योंकि बोधरूप कारण सभी जगह समान है । पहिले कहा जा चुका है कि बोधाकार से भिन्न किसी विशेष को प्रयोजक मानना वस्तुतः बाह्य वस्तुओं
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