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३११
प्रकरणम् ]
भाषानुवादसहितम्
न्यायकन्दली कारस्य व्यवस्थितत्वाभावात् । तथा च यदेकेनाहमिति प्रतीयते तदपरेण त्वमिति प्रतीयते, स्वयं स्वस्य संवेदनेऽहमिति प्रतिभास इति चेत् ? कि वै परस्यापि संवेदनमस्ति ? स्वरूपस्यापि भ्रान्त्या भेदप्रतीतिरिति चेत् ? प्रत्यक्षेण प्रतीतो भेदो वास्तवो न कस्मात् ? भ्रान्तं प्रत्यक्षमिति चेत् ? यथोक्तम्
परिच्छेदान्तरं योऽयं भागो बहिरवस्थितः।
ज्ञानस्याभेदिनो भेदप्रतिभासो ह्यपप्लवः ॥ इति । कुत एतत् ? अनुमानेनाभेदसाधनादिति चेत् ? प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वेनाबाधितविषयत्वादनुमानस्यात्मलाभः, लब्धात्मके चानुमाने प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमित्यन्योन्यापेक्षितादोषः। अस्तु वा भेदो विप्लवो नियतदेशाधिकरणप्रतीतिः, कुतः ? नहि तत्रायमारोपयितव्यो नान्यत्रेत्यस्ति नियमहेतुः । वासनानियमात् तदारोपनियमः स्यादिति चेन्न, तस्या अपि तद्देशनियमकारणाभावात् । सति ह्यर्थसद्भावे यद्देशोऽर्थस्तद्देशानुभवस्तद्देशा च तत्पूर्विका वासना, बाह्याभावे
नहीं है। जिसको एक आकार की प्रतीति 'अहम्' रूप से होती है, उसी आकार की प्रतीति किसी दूसरे को 'त्वम्' रूप से या 'इदम्' रूप से होती है। (प्र०) (यह नियम है कि) स्वयं की प्रतीति अपने को 'अहम्' आकार से होती है। (उ०) 'स्नयं' से भिन्न का भी तो संवेदन होता है। (प्र.) वह संवेदन भी वस्तुत: 'स्व' रूप का ही है, किन्तु भ्रान्तिवश उसमें भेद की प्रतीति होती है। (उ०) प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात होनेवाला यह भेद वास्तविक ही क्यों नहीं है । (प्र०) चूकि प्रत्यक्ष भ्रान्त है । जैसा कहा है कि जो अंश ज्ञान से भिन्न एवं बाह्य मालूम होता है, वह भी ज्ञान से अभिन्न ही है, उसमें ज्ञान भेद की प्रतीति भ्रान्ति है। (उ०) यह क्यों ? (प्र.) चूकि अनुमान से ज्ञान और अर्थ का अभेद सिद्ध है। (उ०) उक्त कथन असङ्गत है, क्योंकि यह अन्योन्याश्रय से दूषित है। कथित अभेद का साधक अनुमान इस लिए प्रमाण है भेद का साधक प्रत्यक्ष भ्रान्त है । प्रत्यक्ष इसलिये भ्रान्त है कि अभेद का साधक अनुमान प्रमाण है । अगर यह मान भी लें कि उक्त भेद की प्रतीति भ्रान्ति है, फिर भी नियमित देश रूप अधिकरण की प्रतीति कैसे उपपन्न होगी? क्योंकि इसका नियामक कोई नहीं है कि अमुक आकार के विज्ञान का आरोप अमुक आकार के विज्ञान में ही हो, विज्ञान के दूसरे आकारों में न ? (प्र०) वासना के नियम से आरोप का नियम होगा ? (उ०) वासना में मी तद्देशविषयकत्व का कोई नियामक नहीं है। बाह्य वस्तुएँ जब रहती हैं, तब जो अर्थ जिस देश में रहता है उस अर्थ विशिष्ट उस देश का अनुभव होता है, एवं उस देश विषयक इस अनुभव से ही उस देश विषयक 'वासना' (संस्कार) उत्पन्न होती है। अगर बाह्य अर्थ ही न रहेंगे तो फिर वासना में भी यह विशेष किससे उपपन्न होगा ? विना विशेष कारण के विशेष
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