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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाध्यम
[गुणे संख्या
न्यायकन्दली
यच्चोक्तं यस्याव्यक्तः प्रकाशः तत्स्वयमव्यक्तं यथा पिहितं वस्त्विति, तत्र पिहितस्याव्यक्तता अप्रकाशः, तन्न, स्वयमव्यक्तत्वात् किन्त्वभावादेवेति व्याप्त्यसिद्धिः । यच्च प्रत्ययत्वादिति तदप्यसारं दृष्टान्तासिद्धेः। स्वप्नादिप्रत्यया अपि समारोपितबाह्यालम्बना न स्वात्ममात्रपर्यवसायिनः, जाग्रदवस्थोपयुक्तानामेवार्थानां संस्कारवशेन तथा प्रतिभासनात्, अन्यथा दृष्टश्रुतानुभूतेष्वर्थेषु तदुत्पत्तिनियमायोगात् । किञ्च, यदि बाह्यं नास्ति किमिदानी नियताकारं प्रतीयते नीलमेतदिति । विज्ञानाकारोऽयमिति चेन्न, ज्ञानाद्वहिर्भूतस्य संवेदनात् । ज्ञानाकारत्वे त्वहं नीलमिति प्रतीतिः स्यान्न विदं नीलमिति । ज्ञानानां प्रत्येकमाकारभेदात् कस्यचिदहमिति प्रतीतिः कस्यचिदिदं नीलमिति चेत् ? नीलाद्याकारवदहमित्या
को अपेक्षा तो रहती ही हैं। अतः प्रदीप रूप दृष्टान में स्वतः प्रकाशकत्व का ज्ञापक परानपेक्षत्व रूप हेतु नहीं है । यदि ज्ञानत्व को ही प्रकाशकत्व रूप मानें तो फिर 'स्वतः प्रकाशत्व' का साधक परानपेक्षत्व हेतु उस समय असाधारण नाम का हेत्वाभास होगा।
यह जो आप ने कहा कि-' ढकी हुई चीज की तरह जिसका प्रकाश अव्यक्त रहता है वह स्वयं भी अव्यक्त ही रहता है ।" इस प्रसङ्ग में कहना है कि आवृत वस्तु का अप्रकाश ही उसकी अव्यक्तता है, जो वस्तुतः उस वस्तु के प्रकाश का अभाव मात्र है। उस वस्तु के प्रकाशक की अव्यक्तता उस वस्तु की अव्यक्तता नहीं है । अत: ज्ञान के स्वतः प्रकाशत्व की साधक उक्त व्यतिरेक व्याप्ति भी सिद्ध नहीं है । (बाह्य वस्तुओं की असत्ता के साधक या ज्ञान में विषय शून्यत्व या निराल. म्बनत्व का साधक) प्रत्यक्षत्व (ज्ञानत्व) हेतु में भी कुछ बल नहीं है, क्योंकि इस हेतु का (स्वप्न ज्ञान रूप) दृष्टान्त ही असिद्ध है । स्वप्नज्ञान भी बाह्य विषयक है ही। वहाँ वे केवल अपने स्वरूप में नहीं हैं। जाग्रत् अवस्था के ज्ञान में भासित होने योग्य विषयों का ही संस्कारवश स्वप्नज्ञान में भान होता है। अगर यह बात न हो तो स्वप्नज्ञान में नियमतः उसी विषय का भान कैसे हो जो वस्तु पहिले से ही श्रुत या दृष्ट हो। दूसरी बात यह है कि अगर बाह्य वस्तु नहीं है तो फिर यह नील है' इत्यादि प्रतीतियों में नियमित रूप से किसका भान होता है ? (प्र०) प्रतीतियों में भासित होनेवाले आकार विज्ञान के हैं ? (उ०) ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि उक्त प्रतीतियां ज्ञान से भिन्न अर्थ विषयक ही होती हैं। अगर उक्त प्रतीतियों में भासित होनेवाले आकार भी विज्ञान के ही हों तो फिर उन प्रतीतियों का अभिलाप "यह नील है" इस प्रकार का न होकर 'मैं नील हूँ' इत्यादि आकार का होगा। (प्र०) ज्ञानों के प्रत्येक आकार भिन्न-भिन्न हैं। इनमें से किसी आकार को प्रताति 'अहम्' के साथ होती है, एवं किसी आकार की प्रतीति 'इदम्' के साथ । (उ०) ऐसी बात नहीं है, क्योंकि नीलादि आकारों की तरह 'अहम्' आकार नियमित
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