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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
___ न्यायकन्दली तु तस्याः किंकृतो देशनियमः ? न च कारणविशेषमन्तरेण कार्यविशेषो घटते, बाह्यश्चार्थो नास्ति । तेन वासनानामेव वैचित्र्यं तद्वैचित्र्यस्यार्थवत्तत्कारणानां वैचित्र्यादित्यनादिरिति चेत् ? वासनावैचित्र्यं यदि बोधाकारादनन्यत् कस्तासां परस्परतो विशेषः ? अथान्यदर्थे कः प्रद्वेषः ? येन सर्वलोकप्रतीतिरपह्रयते । केन चायमाकारो बहिरारोप्यते ? ज्ञानेन चेत? किं तस्य स्वात्मन्याकारसंवित्तिरेव बहिरारोपस्तदन्यो वा ? आये कल्पे सेव तस्य सम्यकप्रतीतिः, सैव च मिथ्येत्यापतितम्, ज्ञानगतत्वेनाकारग्रहणस्य सत्यत्वात्, बाह्यतासंवित्तश्चायथार्थत्वात् । अन्यत्वे तु तयोर्न क्रमेण भावः, तत्कारणस्य ज्ञानस्य क्षणिकत्वात् । न चैकस्य युगपत्सत्यत्वेन मिथ्यात्वेन च प्रतीतिसम्भवः । न च क्रमयोगपद्याभ्यामन्यः प्रकारोऽस्ति, यत्र वर्तमानं ज्ञानं स्वात्मन्याकारं गृह्णीयाद्वहिश्च तमारोपयति । ___अपि च यदि ज्ञानाकारो नीलादिरों यस्यैवायमाकारः स एव तं प्रतीयात्, न पुरुषान्तरं प्रतीयात् । प्रतीयते चायं बहुभिरेकः, सर्वेषां तदाभिमुख्येन
कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। (प्र.) चूकि बाह्य वस्तुओं की सत्ता नहीं है, अतः वासना में ही वैचित्र्य की कल्पना करते हैं। प्रयोजन से युक्त (उस पहिलो वासना में स्थित) कारणों का वैचित्र्य ही उक्त वासना के वैचित्र्य का कारण है। (उ०) वासनाओं के ये वैचित्र्य भी अगर केवल विज्ञान रूप ही हैं तो फिर उन में परस्पर भेद क्या है ? अगर ये वैचित्र्य विज्ञान से भिज्ञ हैं तो फिर नीलादि वस्तुओं को ही विज्ञान से भिन्न मानने में आपको क्यों द्वेष है ? जिससे कि सर्वजनीन प्रतीतियों का आप अपलाप करते हैं। (एवं) विज्ञान के आकारों का यह आरोप कौन करता है ? अगर ज्ञान ही ? अगर आकार से अभिन्न विज्ञान में ही आकार का भान होता है और वही आरोप कहलाता है, तो फिर इस पक्ष में एक ही ज्ञान को सत्य और मिथ्या दोनों ही कहने की आपत्ति होगी, क्योंकि ज्ञान हो आकार के ग्रहण रूप होने से सत्य है, एवं उसमें बाह्यत्व का आरोप होने से मिथ्या है । अगर आकार विज्ञान और आकाराधायक विज्ञान दोनों को भिन्न माने तो फिर उक्त कारणविज्ञान और कार्यविज्ञान दोनों की क्रमशः सत्ता नहीं रहेगी, क्योंकि कारणविज्ञान क्षणिक है। (अगर दोनों विज्ञानों को एक मानें तो फिर) एक ही विज्ञान एक ही समय सत्य और मिथ्या दोनों नहीं हो सकता। क्रम और योगपद्य को छोड़कर कोई तीसरा प्रकार नहीं है कि जिस रूप में विद्यमान आकार अपने से अभिन्न आकार का भी ग्रहण करे और अपने आकार को बाहर आरोपित भी करे।
और भी बात है। अगर ये नीलादि वस्तुएँ विज्ञान के ही आकार हों तो फिर जिस पुरुष के विज्ञान के ये आकार होंगे केवल उसी पुरुष से गृहीत हो सकेंगे, दूसरे पुरुषों से नहीं, किन्तु एक ही वस्तु अनेक पुरुषों से गृहीत होती है, क्योंकि एक
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