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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम्
[गुणे संख्या
न्यायकन्दली ज्ञानं हि स्वसामग्रीप्रतिनियतार्थसंवेदनात्मकमेवोपजायते । अर्थोऽपि संवेद्यस्वभावनियमादेव संवेद्यते, नेन्द्रियादिकमित्यकारणमाकारः। नहि छिदिक्रिया वृक्षाकारवती येनेयं वृक्षेण सह सम्बद्धयते न कुठारेण, किन्त्वस्या वृक्षस्य च तादृशः स्वभावो यदियमत्रेव नियम्येत नान्यत्र । अस्येदं संवेदनमिति च व्यवस्था तदवभासमात्र. निबन्धनैवेति तदर्थमप्याकारो न मृग्यः।।
__अथ साकारेण ज्ञानेनार्थो न संवेद्यत एव, किन्तु स्वाकारमात्रम् । तदर्थसद्भावो निष्प्रमाणको न तावदर्थस्य ग्रहणम्, न चाध्यवसायो विकल्पो ह्यवशिष्यते, स चोत्प्रेक्षामात्रव्यापारो भवन्नपि प्रत्यक्षपृष्ठभावित्वाद्यत्र प्रत्यक्षं प्रवृत्तं तत्र स्वव्यापारं परित्यज्य कारणव्यापारमुपाददानो वस्तु साक्षाकरोति । यत्र तु प्रत्यक्षमेवाप्रवृत्तं तत्र विकल्पोऽप्यसमर्थ एव, कारणाभावात् । ज्ञानाकारः स्वसदृशं कारणं व्यवस्थापयन्नर्थसिद्धौ प्रमाणमिति चेत ? तत्किमिदानीं स्थूलाकारस्य समर्पकोऽप्यर्थो बहिरस्ति ? का गतिरस्य वचनस्य
तस्मान्नार्थेन विज्ञाने स्थूलाभासस्तदात्मनः। एकत्र प्रतिषिद्धत्वाद् बहुष्वपि न सम्भवः ।। इति ।
अपने कारणों से नियमित विषय से ही उत्पन्न होता है। एवं अर्थ भी अपने ग्राह्यत्व रूप स्वभाव से ही विज्ञान के द्वारा गृहीत होता है, अतः विज्ञान में आकार का कोई उत्पादक नहीं है। जैसे कि वृक्ष की कुठारजनित छेदन-क्रिया वृक्ष रूप आकार से युक्त नहीं है, फिर भी वह वृक्ष के साथ ही सम्बद्ध होती है, कुठार के साथ नहीं। अतः यह कल्पना सुलभ है कि छेदनक्रिया और वृक्ष दोनों का ही यह स्वभाव है कि वह छेदनक्रिया वृक्ष में ही नियमित रहे, अत: 'यह ज्ञान इसी विषयक है' इस नियम के लिए भी किसी आकार को खोजने की आवश्यकता नहीं है ।
अगर यह कहें कि साकार विज्ञान से अर्थ गृहीत नहीं होता है, केवल विज्ञान का अपना आकार ही गृहीत होता है, अतः अर्थ की सत्ता ही अप्रामाणिक है, क्योंकि अर्थों का ग्रहण ज्ञानरूप भी नहीं हो सकता अध्यवसाय रूप भी नहीं, किन्तु अर्थों का केवल विकल्प रूप ज्ञान ही हो सकता है। वह अगर होता भी है तो प्रत्यक्ष के पीछे होता है जहाँ प्रत्यक्ष प्रवृत्त भी होता है, वहाँ अपने व्यापार को छोड़कर अपने कारणादि के व्यापार को ( विकल्परूप ज्ञान के द्वारा) ग्रहण कर वस्तु का साक्षात्कार करा देता है। जहां प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होती है, वहाँ कारण के न रहने से विकल्प भी असमर्थ ही है। ( उ० ) ज्ञान का आकार ही अपने सदृश कारण को सिद्ध करते हुए अर्थसिद्धि का भी जनक प्रमाण है। (प्र.) क्या यह कहना चाहते हैं कि घटादि स्थूल आकार का सम्पादक भी बाहर ही है ? तो फिर आपके इस वाक्य की क्या गति होगी ? अतः विज्ञान में विज्ञानात्मक स्थूल वस्तु का अवभास नहीं होता है ।
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