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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [गुणे संख्या
न्यायकन्दली घ्यावर्तमानं वेद्यत्वमभेदेन व्याप्यत इति हेतोः प्रतिबन्धसिद्धिरिति । एतेनाहमित्याकारस्यापि ज्ञानादभेदः सथितः । यश्चायं ग्राह्यग्राहकसंवित्तीनां पृथगवभासः स एकस्मिश्चन्द्रमसि द्वित्वावभास इव भ्रमः । तत्राप्यनादिरविच्छिन्नप्रवाहाभेदवासनैव निमित्तम् । यथोक्तम्
"भेदश्चाभ्रान्तिविज्ञाने दृश्येतेन्दाविव द्वये" इति ।
ननु बाह्याभावे येयं नीलाद्याकारवती बुद्धिरुदेति तस्याः किं कारणम् ? यथोक्तम्
अर्थबुद्धिस्तदाकारा सा त्वाकारविशेषणा ।
सा बाह्यादन्यतो वेति विचारमिममर्हति ॥ अत्रापि वदन्ति-बाह्मसद्भावेऽपि तस्याः किं कारणम् ? नीलादिरर्थ इति चेत् ? न तावदयं दृश्यतेऽर्थस्य सदातीन्द्रियत्वात् । कार्यवैचित्र्येण कल्पनीयश्चेत् ? दृश्यस्य समनन्तरप्रत्ययस्यैव शक्तिवैचित्र्यां कल्प्यताम्, गेन स्वप्नज्ञानेऽप्याकारवैचित्र्यं घटते, नहि तत्र देशकालव्यवहितानामर्थानां
भेद का व्यापक दोनों के सम्बन्ध को उपलब्धि नहीं होती है । ज्ञान के द्वारा समझ में आनेवाले घटादि ज्ञान से भिन्न नहीं हो सकते । इस प्रकार वेद्यत्व भेदरूप विपक्ष से हट जाता है एवं अभेद के साथ व्याप्त हो जाता है । 'अहम्' इस आकार के ज्ञान का विषय (आत्मा) और ज्ञान के अभेद का भी समर्थन हो जाता है। विषय, प्रमाण एवं ज्ञान इनमें जो परस्पर भिन्नत्व की प्रतीति होती है, वह एक ही चन्द्रमा में द्वित्व के अवभास की तरह भ्रम है । इस भ्रम में भी अनादि एवं सतत प्रवाहित होनेवाली वासना ही कारण हैं । जैसा कहा है कि भ्रान्तिरूप ज्ञान में ही चन्द्रमा में द्वित्व की तरह भेद भासित होता है । अगर नीलादि बाह्य विषयों की सत्ता ही नहीं है तो फिर नीलादि आकारों से युक्त इन विविध बुद्धियों का कारण कौन है ? जैसा कहा है कि "अर्थ विषयक बुद्धि अर्थाकार होती है, अतः बुद्धि आकार रूप विशेषण से युक्त अवश्य है, अतः यह विचार उठता है कि यह आकार विशिष्ट बुद्धि बाह्य वस्तु से होती है या और किसी वस्तु से ? इस विषय में विज्ञानवादी कहते हैं कि (प्र०) बाह्य वस्तुओं की सत्ता मान लेने के पक्ष में आकारविशिष्ट बुद्धि का कारण कौन होगा ? अगर नीलादि अर्थों को कारण मानें तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि वे कभी देखे नहीं जाते। क्योंकि अर्थ सदा ही इन्द्रिय के अगोचर हैं। अगर कार्यों की विचित्रता से उसका अनुमान करते हैं तो फिर अतीन्द्रिय अर्थ में उस शक्ति की कल्पना की अपेक्षा दृश्य समनन्तरप्रत्यथ में ही विचित्र शक्ति की कल्पना क्यों नहीं कर लेते ? जिससे कि स्वप्नज्ञान में भी आकार की विचित्रता को उपपत्ति हो सके । स्वप्नज्ञान में भासित होनेवाले एवं देश और काल से व्यवहित विषयों में
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